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आनन्द प्रवचन | छठा भागे __मैं शेखसादी की बात बता रहा था कि वे बड़े काबिल विद्वान एवं प्रसिद्ध शायर थे, किन्तु निर्धन थे। अपनी निर्धनता पर उन्हें एक बार बड़ा खेद हुआ तो वे मसजिद में नमाज पढ़ते समय बोले- "हे परवरदिगार, मुझ पर तू इतना खफा क्यों है कि मैं आराम से खा-पीकर रह नहीं सकता? कम से कम इतनी मेहरबानी तो कर कि मैं जरा ढंग से रह सकूँ और अमन-चैन से जीवन बिता सकूँ।"
खुदा से ऐसी इबादत करके शेखसादी मसजिद से बाहर आए। पर बाहर आते ही उन्होंने भीख मांगने वाले अनेक फकीरों को देखा, जिनमें से किसी के आँखें नहीं थीं, कोई लँगड़ा था, कोई गूंगा और किसी के शरीर पर लज्जा ढकने के वस्त्र भी पूरे नहीं थे।
उन भिखारियों को देखते ही शेखसादी का विवेक जाग्रत हो गया और वे दोनों हाथ जोड़कर दुआ करते हुए बोले- "या खुदा ! तू मुझपर कितना मेहरबान है कि तूने मुझे हाथ, पैर, आँखें आदि सभी कुछ दिये हैं। ये भिखारी मांगकर दूसरों का दिया खाते हैं पर मैं स्वयं कमाकर खा सकता हूँ। कितना बड़ा एहसान है मुझ पर तेरा?"
कहने का आशय यही है कि जो व्यक्ति अपने से निम्न श्रेणी के व्यक्तियों को देखकर अपने आपसे संतुष्ट रहता है, वही लोभ एवं लालच का त्याग करके आत्मा को उन्नत बना सकता है। दूसरे शब्दों में संतोषी व्यक्ति ही परिषहों का सामना समभाव से कर सकता है और किसी भी प्रकार का कष्ट होने पर अन्य व्यक्तियों को या स्वयं ईश्वर को नहीं कोसता। उसके मन में सदा शांति और क्षमा की सरिता लहराती रहती है जो कि भवसागर से पार उतरने के लिये आत्मा को कषाय-रहित एवं सरल बनाती है। इस विषय में एक हिंदी भाषा का कवि भी कहता है
"क्यों डूबे मझधार ? क्षमा है तेरे तरने को।" कहा गया है--अरे भोले मानव ! तू इस संसार-सागर में क्यों डूबता है ? जबकि क्षमा रूपी महान नौका तुझे इससे पार उतारने की क्षमता रखती है । क्षमा का अद्भुत उदाहरण __ अरब देश की एक लघु कथा है कि एक बार किसी व्यक्ति ने एक अरब के पुत्र की हत्या कर दी । वह अरब पुत्र-शोक से अत्यन्त दुखी एवं क्रोधित होकर अपने पुत्र के घातक से बदला लेने के लिये उसकी खोज में घूमने लगा। ___इधर संयोग ऐसा हुआ कि अरब के पुत्र का घातक जब एक दिन किसी दूसरे शहर में जाने के लिये रवाना हुआ तो उसे मार्ग में भयंकर गर्मी और प्रचण्ड हवा
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