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क्यों डूबे मझधार ?
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
__ संवर तत्व के सत्तावन भेदों में से पच्चीसवां भेद तृण परिषह' है। इस विषय में 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के दूसरे अध्याय की चौंतीसवीं गाथा पर विवेचन चल रहा था और उसके अनुसार अचेलगस्स, लूहस्स, संजयस्स एवं तवस्सिणो शब्दों पर मैंने विशेष तौर पर प्रकाश डाला है । अब इसी परिषह पर कही गई पैंतीसवीं गाथा को लिया जा रहा है । गाथा इस प्रकार है
आयवस्स निवाएणं, अउला हवइ वेयणा । एवं नच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतज्जिया ॥
अर्थात् -आतप यानि गर्मी के होने से भारी वेदना उत्पन्न हो जाती है, ऐसा जानकर भी तृणों से पीड़ित मुनि वस्त्र आदि का सेवन नहीं करते ।
जब असम गर्मी पड़ती है तो शरीर को स्वाभाविक रूप से कष्ट का अनुभव होता है । ऐसी बात नहीं है कि संसार के अन्य समस्त प्राणियों को तो ग्रीष्म के ताप से कष्ट हो और साधुओं को न हो। शरीर तो सभी के होते हैं और मुनियों के भी। अतः मुनियों को भी कष्ट का अनुभव होता है। किन्तु यह विचार कर कि वेदना को सहन करने से ही कर्मों का नाश होता है, वे समभावपूर्वक उन कष्टों को सहन कर लेते हैं।
संयमी संत परिषहों को सहन करते समय यही भावना रखते हैं कि बाईस परिषहों में से कोई भी परिषह नरकों की भयंकर यातनाओं के समक्ष केवल सिंधु से निकाले हुए बिन्दु से अधिक महत्व नहीं रखते यानि नरकों की घोर पीड़ा के सामने ये परिषह नगण्य हैं। नारकीय कष्ट
कविवर पं० दौलतराम जी ने अपनी छहढाला नामक पुस्तक में नरक की यातना का वर्णन करते हुए कहा है
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