SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्यों डूबे मझधार ? "तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहज उसे नह तिसो । तहाँ राध श्रोणित वाहिनी, कृमि कुल कलित देहदाहिनी ॥ सेमर तरु जुत दल असिपत्र, असि ज्यों देह विदा तत्र । मेरु समान लोह गल जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ॥ तिल-तिल करें देह के खण्ड, असुर भिड़ावें दुष्ट प्रचण्ड | एक न बूंद लहाय ॥ भूख कणा न लहाय ।" सिन्धु नीर तें प्यास न जाय, तो पण तीन लोक को नाज जु खाय, मिटे न कितनी भयंकर वेदना नरक में होती है ? कहा है- जीव जब नरक में जाता है तो वहाँ की भूमि का स्पर्श करते ही उसे ऐसा लगता है, जैसे हजारों बिच्छुओं ने एक साथ ही काट खाया हो । इसके अलावा वहाँ छोटे-छोटे अनन्त कीड़ों से भरी हुई वैतरणी नामक नदी है । जब नारकीय जीव घोर कष्टों से घबराकर कुछ शीतलता एवं शांति प्राप्ति की आशा से उस नदी में कूदते हैं तो उस रक्त, मवाद एवं कीड़ों से मरी नदी में उनका कष्ट घटने की बजाय अनन्त गुना अधिक बढ़ जाता है । नरक में तनिक भी शांति प्राणी को नहीं मिलती। असह्य आताप से घबरा - कर अगर वह सेमर के वृक्ष के नीचे बैठता है तो उस वृक्ष के तलवार के समान तीखे पत्ते उसके शरीर पर गिरकर अंगों को चीर डालते हैं । नरक की गर्मी और सर्दी इस लोक की सर्दी-गर्मी के समान नहीं होती । कैसी होती है ? इसका वर्णन दो गाथाओं में किया गया है । गाथाएं इस प्रकार हैं २४६ मेरुसम लोहपिण्डं, सीदं उन्हे बिलम्मि पक्खितं । • ण लहदि तलप्पदेशं विलीयदे मयणखण्डं वा ॥ मेरुसम लोहपिण्डं, उन्हं सोदे बिलम्मि पक्खितं । ण लहदि तलं पदेशं, विलीयदे लवणखण्डं वा ॥ अर्थात् — जिस प्रकार गर्मी में मोम पिघलकर जल के समान बहने लगता है उसी प्रकार सुमेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला गरम बिल में फैंका जाय तो वह बीच में ही पिघलने लगता है । Jain Education International दूसरी गाथा में नरक की असह्य शीत के विषय में कहा गया है कि जिस प्रकार सर्दी और बरसात में नमक गल जाता है तथा पानी के समान होकर बहने लगता है, इसी प्रकार सुमेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला ठण्डे बिल में फैंका जाय तो वह मध्य में ही गलने लग जाता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy