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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग किन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति धर्म की रक्षा करता है, यानी धर्ममार्ग पर दृढ़ता से चलता है और कभी भी उसका परित्याग नहीं करता, वह अपने कर्मों की निर्जरा करके आत्मा को परमात्मा बना लेता है तथा सदा के लिए संसार के कष्टों से बच जाता है। तो प्राचीनकाल में आर्य कहलाने वाले भव्य प्राणी धर्मप्रधान मनोवृत्ति के होते थे अतः पूर्ण सन्तोष एवं शान्ति के साथ अपना जीवन यापन किया करते थे । उनके जीवन में आज के व्यक्तियों के जैसी असन्तुष्टि, अशान्ति, व्याकुलता और भागदौड़ नहीं थी। धन के लिए वे हाय-हाय नहीं करते थे, क्योंकि धर्म उनकी तृष्णा पर अंकुश लगाये रहता था। उनके हृदय में धन के प्रति मोह नहीं होता था उल्टे धर्म के लिये वे जान देने को भी तैयार रहते थे। इसका कारण केवल यही था कि वे मानवजन्म के उद्देश्य को समझते थे और इसीलिए इस जीवन का लाभ उठा लेने में तत्पर रहा करते थे। सन्त-महापुरुषों का कथन भी है तू कछु और विचारत है नर, तेरो विचार धर्यो ही रहैगो । कोटि उपाय किये धन के हित, भाग लिख्यो तितनो ही लहैगो ॥ भोर की साँझ परी पर माँझ, सो काल अचानक आइ गहैगो । राम भज्यौ न कियौ कछु सुकृत, सुन्दर यों पछिताई बहैगो । वस्तुतः मनुष्य सोचता कुछ है और होता कुछ है। इसका कारण यही है कि वह इस जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करता है वह पूर्वोपार्जित शुभ एवं अशुभ कर्मों के फलस्वरूप पाता है । अतः किस प्रकार वह कर्म-फल को बदल सकता है ? पूर्व में अधिक पुण्यों का संचय हो तो मनुष्य इस जन्म में सांगोपांग शरीर, सम्पत्ति एवं अन्य सुख के साधन प्राप्त करता है पर अगर पूर्व-पुण्य न हो तो कोटि प्रयत्न करने पर भी किस बल पर वह उन्हें पा सकता है ? यानी नहीं पा सकता। इसी को ललाट का लिखा कहते हैं । किन्तु सुन्दरदास जी कहते हैं कि और कुछ मिले या न मिले. यह शरीर तो मनुष्य को मिल ही चुका है जो कि मेटा नहीं जा सकता, तो फिर इसके द्वारा ईश्वर-भक्ति, सेवा तथा परोपकार आदि सुकर्म वह क्यों नहीं करता? इन सबके लिए तो वह आज और कल ही करता रहता है पर जब काल अचानक आकर उसे ले जाने लगेगा तो फिर केवल पश्चात्ताप के अलावा और उसके साथ क्या चलेगा? इसीलिए आवश्यक है कि मनुष्य को जो कुछ मिला है, उसे वह अपने कर्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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