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________________ तप की ज्योति २४३ ज्यादा महत्व नहीं होता। पर वह भावना पर आधारित है। प्रशंसा, सराहना, सिद्धि या लोक प्रसिद्धि के लिए कोई भी तप किया जाय, वह फलहीन बन जाता है। और तप ही क्या, कोई भी धर्म-क्रिया किसी स्वार्थ या दिखावे के लिए की जाय तो वह सर्वथा निरर्थक साबित होती है। यही हाल तप का है। तपस्या करना एक प्रकार से उस घर यानी परलोक के लिए माल इकट्ठा करना है। कल मैंने एक भजन की दो गाथाएं कहीं थीं, आज आगे की गाथा कहता हूँ। इसमें भी साधक को व्यापारी बताते हुए आत्मिक व्यापार करने की प्रेरणा दी है। कहा है "जो तू बड़ा व्यापारी कहावे, क्या शिवपुर नहिं आढ़त पावै ? माल जो भरे शिवपुरी का, काम है बड़े दिलावर का। क्या हटड़ी रहा खोला, बनज कुछ करले उस घर का।" कवि का कथन है-अरे मानव ! तू तो बड़ा भारी व्यापारी कहलाता है और बड़ा व्यापारी बड़े हौसले वाला होता है । ऐसी स्थिति में व्यापार भी बड़ा करके सीधा मोक्षपुरी से संबंध क्यों नहीं करता ? वहाँ के लिये आढ़त क्यों नहीं भरता है ? बड़ा व्यापारी कौन ? यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि कवि ने बड़े व्यापारी और छोटे व्यापारी में अन्तर क्या बताया है ? इस सांसारिक व्यापार को देखते हुए आप लोग जानते ही हैं कि बड़ा व्यापारी और छोटा व्यापारी किसे कहते हैं ? थोड़ा सामान रखकर अपने ही गाँव व नगर में उसकी ब्रिकी करते रहने वाला छोटा व्यापारी कहलाता है । और ऐसी छोटी-छोटी दुकानें हम सैकड़ों देखते ही हैं। किन्तु लाखों और करोड़ों की पूजी से व्यापार करने वाले व्यापारी भी आपकी और हमारी नजर में हैं । जो कि अनेक शहरों में अपनी दुकानों, फैक्टरियों और कम्पनियों की शाखाएँ खोलते हैं। यहां तक कि उनका माल विदेशों में जाता है और वे दूर-देशों से सामान अपने यहाँ भी मँगाते हैं। यहाँ कवि ने आध्यात्मिक व्यापार की दृष्टि से भावना व्यक्त की है कि चौरासी लाख योनियों में असंख्य जीव हैं और वे अपने कर्मों के अनुसार एक योनि से दूसरी योनि में जन्म-मरण करते रहते हैं। मनुष्य के अलावा और किसी भी योनि का जीव छोटा व्यापारी कहलाता है क्योंकि वह उत्कृष्ट करणी के रूप में बड़ा व्यापार करके केवलज्ञान एव केवलदर्शन रूपी भारी मुनाफा कमाकर मोक्ष यानी शिवपुर में नहीं जा सकता । इस संसार में सिर्फ मानव ही ऐसा प्राणी है जो उत्कृष्ट साधाना रूपी बड़ा व्यापार करके केवलज्ञान रूपी सर्वोत्कृष्ट या असीम धन कमाकर शिवपुर का टिकिट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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