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________________ २४२ आनन्द प्रवचन | छठा भाग कुछ समय पश्चात् नन्दिषेण जी एवं मुनि-रूपी देवता दोनों ही उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ रोगी मुनि लेटे हुए कराह रहे थे। उन्हें दस्तें लग रही थीं एवं उलटियाँ भी बराबर हुए जा रही थीं। नंदिषेण जी बड़े चिन्तित हुए कि इस निर्जन स्थान पर जल एवं दवा आदि के अभाव में मैं किस प्रकार मुनि की सम्हाल करूं ? अशक्त वे इतने थे कि उठकर चल भी नहीं सकते थे । किन्तु सोच-विचार में उन्होंने समय नष्ट नहीं किया और वस्त्रादि से मुनि के शरीर को कुछ साफ करके उन्हें अपनी पीठ पर उठाकर अपने स्थान की ओर रवाना हो गए ताकि वहाँ लेजाकर दवा, पथ्य एवं परिचर्या, सभी के द्वारा उन्हें शीघ्र स्वस्थ किया जा सके । दूसरे मुनि उनके साथ हो लिये । मुनि नंदिषेण जी यथासाध्य सावधानी से चल रहे थे ताकि अस्वस्थ मुनिराज को कष्ट न हो । पर मुनि तो कृत्रिम रोगी थे अतः उन्होंने नंदिषेण जी की पीठ पर चढ़े-चढ़े ही दस्त एवं उलटियों से उनके सम्पूर्ण शरीर को लथपथ कर दिया । साथ ही भयंकर दुर्गंध फैला दी जो कि साधारण व्यक्ति के लिए सहन करना कठिन होता। किन्तु धन्य थे नंदिषेण मुनि, जिनके चेहरे पर उस समय एक शिकन भी नहीं आई। पीठ पर भारी बोझ, गन्दगी से भरा हुआ शरीर और ऊपर से असह्य दुर्गंध, पर साथ ही रोगी मुनि के जबान से निकली हुई गालियाँ तथा पीठ पर पैरों से किये जाने वाले प्रहार भी। पर स्वर्ग तक जिनकी प्रशंसा पहुँच जाए, वे मुनि क्या डिग सकते थे ? नहीं, वे सभी कुछ पूर्ण शान्ति, समभाव एवं सेवा का अवसर मिलने की आन्तरिक खुशी के साथ सहन करते हुए अस्वस्थ मुनि को अपने निवास स्थान पर ले आए तथा गाँव के घरों में से जल लाकर उनके शरीर को एवं वस्त्रों को स्वच्छ किया तथा उपयुक्त दवा आदि लाकर उन्हें दीया। ___ बस इतना ही काफी था। देवताओं को अपनी भूल समझ में आ गई कि उन्होंने मुनि नंदिषण की प्रशंसा से ईर्ष्या एवं जलन के कारण उन्हें कष्ट दिया तथा नाना प्रकार के दुर्वचन कहे। वे भली-भाँति समझ गए कि मुनि के वैयावृत्य की प्रशंसा सत्य है तथा उनका सेवाभाव सराहनीय है। यह निश्चय होते ही वे अपने असली रूप में आ गये और मुनि से अपने कटु एवं दुर्व्यवहार के लिए क्षमा मांगकर अपने स्थान को लौट गये । इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि सेवा करना भी कितना महान तप है और उसे करने वाला अपनी आत्मा को कितनी शुद्ध एवं उन्नत बना लेता है । इसीलिए भजन में कहा गया है कि कोई मुनि रसों का परित्याग करने वाले होते हैं, कोई ज्ञानी होते हैं, कोई सेवाभावी होते हैं तथा इसी प्रकार जिस तरह के तप करने की उनमें क्षमता होती है, करते हैं । बारहों प्रकार के तप महत्वपूर्ण हैं, किसी का भी कम या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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