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तप की ज्योति
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भजन में कहा है-कोई-कोई मुनि ज्ञान के भंडार होते हैं। उदाहरण स्वरूप हमारे त्रिलोकऋषि जी म० के भाई तो सदा एकान्तर तप करते थे और स्वयं त्रिलोकऋषि जी म० ने सत्रह शास्त्र कण्ठस्थ कर लिये थे। श्री उत्तराध्ययन सूत्र का पाठ तो वे ध्यानस्थ होकर ही करते थे। उनके रचे हुए अनेक पद्य एवं भजन आदि भी आज जन-जन भी जबान पर सुनने को मिलते हैं। पूज्य श्री अमोलकऋषि जी म० भी बड़े विद्वान एवं वक्ता थे तथा धर्म एवं ज्ञान के प्रचार में निरन्तर लगे रहते थे ।
अनेक मनि जो कि अधिक ज्ञान हासिल नहीं कर सकते तथा शारीरिक कारणों से उपवास आदि तप भी नहीं कर पाते वे पूर्ण मनोयोगपूर्वक सेवा में ही लगे रहते हैं। आपने मुनि नंदिषेण की कथा कई बार सुनी होगी जिनकी सेवाभावना की प्रशंसा देवलोक तक पहुँच गई थी।
___आप जानते हैं कि प्रत्येक स्थान पर अच्छे और बुरे, दोनों प्रकार के प्राणी पाये जाते हैं। आप स्वर्ग के नाम से बड़े प्रसन्न होते हैं तथा कामना करते हैं कि मरने के पश्चात् हमें स्वर्ग ही मिले। किन्तु स्वर्ग के देवताओं में भी कषाय, राग एवं द्वषादि की भावना होती है तथा उनका जीवन पूर्ण अनियन्त्रित रहता है कभी कोई देव, दूसरे की ऋद्धि छीन लेने का प्रयत्न करता है और कभी कोई देव दूसरे की अप्सरा को ही चुरा लेता है। इसके परिणामस्वरूप उनमें मनोमालिन्य एवं लड़ाईझगड़ चलते रहते हैं।
तो हमारा प्रसंग यह चल रहा था कि नन्दिषेण मुनि के उत्कृष्ट वैयावृत्य की प्रशंसा स्वर्ग में होने लगी तो दो देवों को यह प्रशंसा तनिक भी अच्छी नहीं लगी। मारे जलन के उन्होंने मुनि की परीक्षा लेने का विचार किया और अविलम्ब दो मुनियों का रूप धारण करके मर्त्यलोक में आ पहुँचे ।
एक मुनि तो जंगल में रोगी का रूप बनाकर लेट गया और दूसरा नन्दिषेण मुनि के निवास स्थान पर जा पहुंचा। मुनि उस समय आहार ग्रहण करने के लिए बैठे ही थे कि मुनि रूपधारी देव ने आकर नन्दिषण जी को फटकारते हुए कहा
"वाह ! अच्छे मुनि हो तुम? शर्म आनी चाहिए तुम्हें कि समीप के वन में ही एक मुनि भयंकर विशूचिका रोग से ग्रसित पड़े हैं और तुम आनन्द से यहाँ भोजन कर रहे हो।"
"मेरी बड़ी गलती हुई महाराज ! शीघ्र चलिए, ताकि मैं उन मुनिराज की यथासाध्य सेवा कर सकूँ । कृपया मुझे मार्ग बताइये ।" कहते हुए नन्दिषेण जी उसी क्षण उठ खड़े हुए और उस कृत्रिम रूपधारी मुनि के साथ रवाना हो गये । उन्होंने यह भी नहीं कहा कि मुझे जब मुनि के कहीं आस-पास में उपस्थित होने का पता नहीं था तो उनकी सार-सम्हाल न करना मेरा दोष कैसे हुआ ? वे तो अपनी ही भूल मानकर चुपचाप चल दिये ।
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