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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
बाह्म तप
अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश एवं प्रतिसंलीनता ये बाह्य तप कहलाते हैं। अन्तरंग तप
प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्य (सेवा), स्वाध्याय, ध्यान एवं त्युत्सर्ग ये अंतरंग तप हैं।
इस प्रकार बाह्य और अंतरंग, सभी मिलाकर बारह तप कहलाते हैं तथा सभी समान महत्व रखते हैं। अतः केवल उपवास करने वाले को ही तपस्वी नहीं जानना चाहिए । जिस साधक में जैसी क्षमता होती है, वह वैसा ही तप करता है । अगर कोई सन्त शारीरिक अशक्ति के कारण उपवास नहीं कर सकता, किन्तु अपने देव, गुरु एवं धर्म के प्रति आस्था एवं विनय भाव रखता है तथा कभी भी गुरु की अवहेलना नहीं करता, वह भी तपस्वी है । इसी प्रकार कोई सन्त विद्वत्तापूर्ण प्रवचन नहीं दे सकता, किन्तु ध्यान एवं स्वाध्याय करता है तथा चारित्र धर्म का पूर्णतया खयाल रखता हुआ परिषहों को सहन करता है, अपनी प्रत्येक भूल के लिए गुरु के समीप आलोचना करता हुआ प्रायश्चित्त करता है तथा रसना-इन्द्रिय पर पूर्ण नियन्त्रण रखता हुआ निर्दोष भिक्षा लाकर समभावपूर्वक उसे ग्रहण करता है, वह भी तपस्वी है । इसीलिए एक पुराने भजन में कहा गया है
एक-एक मुनिवर रसना त्यागी, एक-एक ज्ञान रा भण्डार रे...। एक-एक मुनिवर व्यावचिया वैरागी, ज्यांरा गुणां रो नहिं पार रे....।
साधुजी ने वंदना नित-नित कीजै....। पद्य का अर्थ यही है कि कोई-कोई मुनि अपनी रसनेन्द्रिय पर नियन्त्रण रखते हैं तथा घी, तेल, मिष्ठान्न तथा दही आदि सभी रसों का त्याग करके दृढ़ता से मुनिवृत्ति का पालन करते हैं । श्री वेलजी ऋषि जी महाराज सिर्फ छाछ लेकर अपने शरीर को टिकाये रहते थे। यह देखकर कुछ व्यक्ति भावना एवं भक्ति के वश होकर छाछ में मक्खन की गोलियाँ रख देते थे । किन्तु ऐसा जानकर महाराज छाछ छानकर ग्रहण करते थे । ऐसा उन्होंने अनेक वर्षों तक किया। यद्यपि वे अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन रस-परित्याग तप से ही उनकी आत्मिक शक्ति बहुत बढ़ी हुई थी। श्री उत्तमचन्द जी म० भी छाछ पर रहते थे। इसी प्रकार वेणीचन्द जी म० भी खान-पान को अत्यन्त तुच्छ मानकर ध्यान साधना एवं विनयादि तपों की उत्कृष्ट आराधना करते थे।
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