________________
तप की ज्योति
२३६ मोक्ष प्राप्ति के साधनों में सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक तप को माना है तथा प्रकारान्तर से मोक्ष-साधना में दान, शील, तप और भाव को बड़ा भारी महत्व दिया है ।
कहने का आशय यही है कि इन दोनों स्थितियों में तप का स्थान उल्लेखनीय एवं अनिवार्य है। क्योंकि तप से पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा होती है । आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
सदोषमपि दीप्तेन, सुवर्ण वह्निना यथा ।
तपोऽग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुध्यति ॥ अर्थात् जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त सोना अग्नि में तपकर शुद्ध बन जाता है, इसी प्रकार तप रूपी अग्नि में तपकर आत्मा शुद्ध और पवित्र हो जाती है ।
तप जीवन के उत्थान का सर्वोपरि साधन या प्रमुख मार्ग है । तपश्चरण से सर्वोच्च पद तीर्थंकर गोत्र की उपलब्धि होती है। भगवान महावीर ने अपने पिछले जन्म में नन्दन भूपति के भव में ग्यारह लाख साठ हजार बार महीने-महीने के उपवास किये थे। वह इसीलिए कि उनके निविड़ कर्मों का बन्ध था अतः उन्हें नष्ट करने के लिए कठोर तप की आवश्यकता भी थी।
तप के द्वारा किस प्रकार आत्मा को जकड़े हुए असंख्य कर्मों का क्षय होता है, इस विषय में भगवान महावीर ने फरमाया है
जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे । उसचिणाए तवणाए, कमेणं सोसणाभवे ॥ एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे । भवकोडिसंचियं कम्मं, तवसा निज्जरिज्जइ ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३०, गा. ५-६ अर्थात्-जैसे किसी बड़े तालाब का जल उसका रास्ता रोक देने से, सिंचाई करने से तथा सूर्यादि के ताप से धीरे-धीरे सूख जाता है, इसी प्रकार संयमशील मुनि के द्वारा पाप कर्म रोक दिये जाने पर योनी संवर की आराधना करने पर, और फिर तप किये जाने पर करोड़ों जन्मों के संचित पाप कर्म क्षीण हो जाते हैं ।
आशा है आप तप का महत्व समझ गए होंगे, अब मुझे यह बताना है कि तप कितने प्रकार का होता है और किस प्रकार वे सभी अंग कर्मों की निर्जरा में कारण बनते हैं।
जैनागमों में तप को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा गया है (१) बाह्यतप एवं (२) अन्तरंग तप । इन दोनों के भी छ:-छः प्रकार हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org