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धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
तप की ज्योति
'श्री उत्तराध्ययन' सूत्र के दूसरे अध्याय की चौतीसवीं गाथा पर विवेचन
चल रहा है । गाथा में संवर तत्व के सत्तावन भेदों में से पैंतीसवाँ भेद 'तृण परिषह' है । इस परिषह को कौन सहन कर सकता है ? वही, जो मर्यादित एवं बहुत कम वस्त्र रखते हैं और मन की विशेष अवस्था हो जाने पर बिलकुल भी वस्त्र नहीं रखते। साथ ही पूर्णतया रूखी वृत्ति अपना लेते हैं ।
कल मैंने बताया था कि इन्द्रियों और मन पर काबू रखने वाला साधक ही संवर-मार्ग पर बढ़ सकता है । मन और इन्द्रियों पर काबू रखने का अर्थ संयत रहना है । संयत रहने से शक्ति बढ़ती है । उदाहरणस्वरूप जो वाचाल होता है, प्रथम तो अधिक बोलते रहने से उसके दिमाग की नसें कमजोर होती हैं, दूसरे लोग उसका विश्वास नहीं करते अर्थात् उसका प्रभाव कम होता है । इसलिए वचन योग पर नियन्त्रण रखना उत्तम है, इससे व्यर्थ वाद-विवाद और गप्पबाजी में जो समय जाता है वह ज्ञान प्राप्ति या अन्य शुभ कर्मों में लगाया जा सकता है । यही हाल इन्द्रियों का है । अगर इन पर संयम रखा जाय तो वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की आराधना में सहायक बनती हैं। दूसरे शब्दों में, यह भी कहा जा सकता है कि इन चारों की आराधना तपस्वी ही कर सकते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र की गाथा में अचेल - गस्स, लूहस्स, संजयस्स और इनके बाद तवस्सिणो शब्द आया है । यह तपस्वियों के लिए है ।
तपस्वी कौन कहलाते हैं ?
आज अधिकतर व्यक्ति उपवास करने वालों को ही तपस्वी मानते हैं । किन्तु यह सत्य नहीं है । हमारे शास्त्र तप के बारह प्रकार बताते हैं और उनमें से जिसकी आराधना की जाय, वही तप की श्रेणी में आ जाता है ।
हमारा जैन धर्म तप और त्याग प्रधान है । इसके अनुसार केवल शरीर का पोषण करना और उसे सुख पहुँचाना आत्मा का शोषण माना गया है । भगवान ने
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