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________________ पास हासिल कर शिवपुर का दीपे प्रज्वलिते प्रणश्यति तमः कि दीपमात्रं वज्रणाभिहताः पतन्ति गिरयः, कि स्तेजो यस्य विराजते स बलवान्, तमः । वज्रमात्रो गिरि स्थूलेषु कः प्रत्ययः ।। अर्थात् - हाथी इतना विशालकाय होने पर भी अंकुश के आधीन रहता है तो क्या अंकुश हाथी के बराबर है ? छोटा सा दीपक जलते ही वर्षों का घोर अंधेरा क्षण भर में नष्ट हो जाता है तो क्या अंधकार दीपक के बराबर ही है ? वज्र का प्रहार लगने पर बड़े-बड़े पर्वत गिरा दिये जाते हैं तो क्या पर्वत वज्र के बराबर है ? नहीं, वास्तव में बलवान एवं प्रतापी वही है जो पुरुषार्थी एवं उद्यमी है । २३७ बन्धुओ ! इस श्लोक से आप समझ गए होंगे कि आकार - प्रकार से बड़ा और विशाल होने से ही कोई अपरिजेय नहीं हो जाता । हाथी, अंधकार एवं पर्वत भी लघु आकार वाले अंकुश, दीपक एवं वज्र से पराजित हो जाते हैं । इन उदाहरणों का रहस्य समझकर हमें भी कभी निराश नहीं होना चाहिए । छोटा-सा दीपक जैसे वर्षों से अंधेरी गुफा को क्षण भर में ज्योतिर्मान कर देता है, इसी प्रकार भले ही अनन्तकाल से हमारी आत्मा में अज्ञान का अंधकार छाया हुआ है, पर सम्यक्ज्ञान की ज्योति जलते ही वह समय मात्र में ही दूर किया जा सकता है । इसी प्रकार भले ही हमारी आत्मा निविड़ कर्मों से न जाने कब से बंधी है, किन्तु त्याग एवं तप की उत्कृष्टता से वे बन्धन शीघ्र ही टूट सकते हैं । आवश्यकता भावों के चढ़ने की है । Jain Education International जैसा कि कवि ने कहा है – “भाई ! तू इन पाँचों इन्द्रियों को जीतकर शिवपुर का पास हासिल कर ले ।" यह कोई अनहोनी बात नहीं है । अगर साधक सच्चा संयति है और पूर्ण संयमी है तो वह अपने मन एवं इन्द्रियों को कुमार्गगामी बनने से और उस स्थिति में शिवपुर रोकता हुआ अपनी साधना में सहायक बना सकता है यानी मोक्ष का टिकिट हासिल कर लेना कठिन नहीं है । वह तो मिलकर ही रहेगा । ठीक उसी प्रकार, जैसे किसान बीज बोता है तो वे अंकुरित हुए बिना नहीं रहते । वह बात दूसरी है कि अतिवृष्टि या अनावृष्टि हो तो बीज नष्ट हो जाय । यह स्थिति तो कच्चे साधक के लिए भी आ सकती है, अगर वह अपनी साधना से विचलित हो जाय या निराश होकर मार्ग छोड़ दे । अन्त में मुझे केवल यही कहना है कि आज हमने 'संयति' शब्द को लिया था और इसी प्रसंग में मन, वचन एवं शरीर, इन तीनों योगों पर संयम रखने से किस प्रकार आत्मा को लाभ होता है, यह आपके समक्ष संक्षेप में रखा गया है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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