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आनन्द प्रवचन | छठा भांग
सुभाषित रत्न मांडागार में तो यहाँ तक कहा गया हैजीवितं ज्ञातिपराजितस्य, व्यर्थ मनोरथस्य ।
धिग् धिग् जीवितं धिग् जीवितं शास्त्र - कलोज्झितस्य, धिग जीवितं चोद्यमवजितस्य ॥
यानी — जो अपने स्वजनों से पराजित हो चुका है, व्यर्थ संकल्प-विकल्पों में उलझा रहने वाला है, शास्त्र एवं कला से शून्य है और निरुद्यमी है— उन सभी का जीवन धिक्कार के योग्य है ।
इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक आत्म-मुक्ति का इच्छुक व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रतिपल कटिबद्ध और जागरूक रहे । अगर उसके जीवन में निष्क्रियता आ गई तो फिर मुक्ति की चाह मन में ही रह जाएगी और इस लोक से प्रयाण हो जाने पर अनन्त काल रूपी महासागर के अतल में विलीन हो जाएगी ।
हमारे यहाँ अनेक व्यक्ति आते हैं और कहते हैं
"महाराज हम तो अज्ञानी हैं, हममें इतनी शक्ति कहाँ है जो कर्मों का नाश कर सकें । कर्मों का नाश तो तीर्थंकर जैसे महापुरुष ही कर सकते हैं । इस पंचम काल में हमारी क्या विसात है ?"
कैसी कायरता और पुरुषार्थहीनता की बात है यह । काल से मनुष्य की आत्मिक शक्ति में कौन सा अन्तर पड़ता है ? जो व्यक्ति आत्मशक्ति, आत्मज्ञान एवं
आत्मा की महत्ता को समझ लेते हैं। किसी भी काल में कर्मों मुक्त हो सकते हैं और जो इनमें विश्वास नहीं रखते तथा आत्म-मुक्ति का प्रयत्न ही नहीं करते, वे किसी भी काल में आत्मा को संसार से मुक्त नहीं कर पाते ।
लोग कहते हैं भगवान महावीर तीर्थंकर थे और उस काल में होने के कारण मोक्ष -गामी बने । किन्तु मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या गोशालक भी उसी काल में नहीं हुआ था ? राम के समय में रावण और कृष्ण के समय में कंस नहीं था ? इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि काल आत्मा की मुक्ति और बन्ध में कारण नहीं बनता । वही आत्मा संसार-मुक्त होती है जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना करती हुई अपने उद्यम से साधना पथ पर निरन्तर बढ़ती चली जाती है और इसके विपरीत वह आत्मा संसार परिभ्रमण करती है जो आत्म-शक्ति एवं आत्म-ज्ञान पर विश्वास न रखती हुई पुरुषार्थहीन और कायर बनी रहकर यहाँ से प्रयाण कर जाती है ।
पुरुषार्थ और उद्यम का महत्व बताते हुए पंच-तन्त्र में कहा गया है -
हस्ती स्थूलतरः स चाङ, कुशवशः,
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कि हस्तिमात्रोऽङ कुशो ।
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