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________________ २४४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग लेकर वहाँ तक पहुंच सकता है । मोक्ष का टिकिट आपके दुनियादारी के नोटों से नहीं मिल सकता। उसे खरीदने के लिये ज्ञान, दर्शन, चारित्र भक्ति, शील, दान एवं तप रूपी नगद दाम चाहिये । और ऐसा धन सच्चा तपस्वी जो कि आभ्यन्तर एवं बाह्य, दोनों ही प्रकार के तपों की आराधना करता है, वही पा सकता है । किन्तु आवश्यकता है साधना में पराक्रम या पुरुषार्थ रखने की । अगर ऐसा नहीं किया गया तो स्वर्ग और शिवपुर की तो बात दूर है पुनः मनुष्यगति भी मिलना संभव नहीं है । यह मानव जीवन एक दुर्लभ पूँजी है और मुमुक्षु अपने पुरुषार्थ, साहस एवं साधना के द्वारा ही इसे बढ़ाकर देवगति और मुक्ति प्राप्त कर सकता है, अन्यथा यह डूब जाती है । परिणाम क्या होता है, यह एक श्लोक बताता है माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं, नरगतिरिक्खत्तणं धुवं ॥ -श्री उत्तराध्ययन सूत्र ७-१६ अर्थात-मनुष्य जीवन मूलधन है । देवगति उसमें लाभरूप है। मूलधन के नाश होने पर नरक, तियंचगति रूप हानि होती है। इसलिये बंधुओ, हमें मानव जीवन की महिमा को समझकर इसका लाभ उठा लेना है । आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जब हम विचार करते हैं तो जान सकते हैं कि केवल मनुष्य ही चरम सीमा का आध्यात्मिक विकास कर सकता है। यद्यपि स्वर्ग का नाम हम सभी को प्रिय लगता है और स्वर्ग में जाने के लिये सभी लालायित रहते हैं, किन्तु देवताओं को केवल अपने जीवन की अवधि तक मनुष्यों की अपेक्षा अधिक भोगोपभोगों के सुख ही हासिल होते हैं। आध्यात्मिक साधना और उसकी सिद्धि का जहाँ सवाल आता है, वे नगण्यों की गणना में भी जाते हैं । अगर बहुत कोशिश करें भी तो वे केवल चार गुणस्थानों को पा सकते हैं। जब कि मनुष्य १४ गुणस्थानों को पार करके संसार-मुक्त हो जाता है। ऐसा ही करने की कवि प्रेरणा दे रहा है और कह रहा है कि जब तुम्हें प्रकृष्ट पुण्य के उदय से यह महान मानव-जन्म मिल गया है तो इस उत्कृष्ट जन्म रूपी अमूल्य या अपार पूजी से छोटा व्यापार करके विभिन्न योनियों का उपार्जन मत करो। अपितु अपना पूरा साहस, शक्ति, विवेक, बुद्धि, साधना एवं तप आदि सभी की सहायता से ऐसा व्यापार करो कि मुक्ति-रूपी मुनाफा प्राप्त होकर रहे । साधना के ये सभी साधन साधक के लिये तभी सहायक बनते हैं जब कि साधक की दृष्टि केवल अपने लक्ष्य की ओर होती है तथा वह उसे प्राप्त करने के लिये कटिबद्ध हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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