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पास हासिल कर शिवपुर का
पर आप मानते कहाँ हैं ? हाँ, मजबूरी की बात और है। साधु-संत तो आपसे सदा कहते आए हैं कि "किसी को कम न तोलो और ज्यादा मत लो", लेकिन आप लोगों के देने और लेने के बांट अलग-अलग बने रहे। किन्तु सरकार ने जब एक ही बांट कर दिया कि इसी से दो और इसी से लो, अन्यथा दण्ड के भागी बनोगे तो आपको ऐसा करना पड़ा। ऊपर से जब तब आकर इन्सपेक्टर आपके बांटों की जाँच और कर लेता है । अतः आप दो प्रकार के बांट रखना भूल गए।
इसी प्रकार हम कहते रहे कि कम से कम पर्वाधिराज पर्दूषण के आठ दिनों में व्यापार बंद रखो, और आठ दिन नहीं तो प्रारम्भ के एक दिन और अन्त के एक दिन संवत्सरी पर्व पर यानी केवल दो दिन ही दुकानें बन्द रखकर धर्माराधन किया करो। पर आपमें से अधिकांश इस बात को भी नहीं मानते। कभी-कभी लोक-लज्जा से बंद रखी भी तो पीछे के दरवाजे से या चुपके से अपना काम चाल रखते हैं।
किन्तु जब सरकार ने कानून बना दिया कि सप्ताह में एक दिन दुकान बन्द रखनी होगी तो मजबूरन सप्ताह में एक दिन यानी वर्षभर में बावन दिन दुकान बन्द करते हैं या नहीं ? इससे तो संतों की ही बात मान लेते तो क्या हर्ज था ? पर वह आपको गम्य नहीं हुआ, क्योंकि स्वेच्छा से करना था । वैसे अगर बीमार पड़ जायें तो फिर भले ही एक महीने या उससे भी अधिक दुकान बंद रह जाएगी। स्पष्ट है कि पराधीन होने पर आप ऐसा कर सकते हैं किन्तु स्वेच्छा से नहीं।
विचार करने की बात है कि आपने अब अपने तौल के बांट एक ही रखे और प्रति सप्ताह दुकानें भी बंद रखनी प्रारम्भ कर दीं, किंतु अगर उत्तम भावना और इच्छापूर्वक ऐसा किया होता तो बात ही दूसरी थी। उदाहरणस्वरूप-एक व्यक्ति विपुल धन संग्रह कर लेता है किंतु अभावग्रस्त व्यक्तियों के प्रति करुणा का भाव रखते हुए एक पैसा भी दान में नहीं देता। पर संयोगवश अगर डाकू आकर सारा धन लूट ले जाते हैं तो बन्दूक के डर से उन्हें देना पड़ता है और मिनटों में निकालकर वह दे देता है । किन्तु दान देने और डाकुओं को देने में कितना अन्तर होता है ? त्याग वही कहलाता है जो इच्छापूर्वक किया जाय । कभी-कभी तो अकाल आदि की स्थिति में लोगों के दीनतापूर्वक याचना करने पर भी सेठ लोग उन्हें पेट भरने के लिए कुछ अन्न नहीं देते, किन्तु वे ही लोग भूख सहन न कर सकने पर मिलकर छापा मार देते हैं और अन्न के गोदाम पूरे के पूरे ही गांठें बाँध-बाँधकर ले जाते हैं । पर वह अन्न का जाना उन सेठों के लिए दान नहीं कहला सकता और उससे उनके शुभ-कर्मों का बंध नहीं हो सकता।
कहने का अभिप्राय यही है कि त्याग स्वेच्छा से किया जाता है, मजबूर होकर दिये जाने को त्याग नहीं कहते । अपनी इच्छा से आप देना नहीं चाहते किन्तु इन्कम
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