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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
उसका व्यय करते हैं उनके पास धन का संग्रह हो नहीं पाता और जो कृपण अथवा परिग्रही पुरुष अनीति एवं अधर्म की कमाई करते हैं, उनके पास धन तो विपुल होता है, किन्तु उसे लेना हमारे लिए उचित नहीं है।"
“अनीतिपूर्वक कमाये हुए धन का उपयोग करने से हमारे आदर्श नष्ट होते हैं, बुद्धि में विकार आ सकते हैं तथा हमारी साधना अशुद्ध हो जाती है, उसमें दृढ़ता एवं निस्वार्थता नहीं रहती । अनीति द्वारा उपार्जित अपवित्र धन के द्वारा आभूषण बनवाकर पहनने से तुम्हारा कभी कल्याण नहीं हो सकता। इसके अलावा तुम्हारे सद्गुण और शील ही तुम्हें सुन्दर बनाए हुए हैं, फिर अन्य आभूषणों की आवश्यकता ही क्या है ?"
साध्वी लोपामुद्रा ने पति की बात समझ ली तथा अपने आभूषण-प्रेम के लिए लज्जित हुई । वह यह भी समझ गई कि उसके पति अगस्त्य लक्ष्मी को तनिक भी नहीं चाहते और उसकी छाया से भी दूर रहने का प्रयत्न करते हैं ।
सम्भवतः इसीलिए आचार्य चाणक्य ने अपने एक सुन्दर श्लोक में लक्ष्मी का कथन चित्रित किया है । श्लोक इस प्रकार है
पीतोऽगस्त्येन तातश्चरणतल हतो वल्लभोऽन्येन रोषाद, आबाल्याद्विप्रवर्यः स्ववदनविवरे धार्यते वैरिणी मे। गेहं मे छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजा-निमित्तं,
तस्मात्खिन्ना सदैव द्विजकुलनिलयं नाथ ! नित्यं त्यजामि ॥
चाणक्य ने बड़े मनोरंजक तरीके से लक्ष्मी की बात कही है, यानी यह बताया है कि लक्ष्मी झंझलाकर कह रही है-अगस्त्य ऋषि ने रुष्ट होकर मेरे पिता समुद्र को पी डाला, भृगु ऋषि ने क्रोध के मारे मेरे पति विष्णु को लात मारी तथा बाल्यवय से ही ब्राह्मण मेरी दुश्मन सरस्वती को मुख में धारण करते हैं और उमापति शिव की पूजा के लिए मेरे गृह कमल को नित्य तोड़ लेते है-बस, इन्हीं कारणों से मैं ब्राह्मण कुल से सदैव दूर रहती हूँ।
___ बंधुओ, यह तो एक रूपक है जो मैंने आपके समक्ष रखा है, किन्तु इसका भाव यही है कि ऋषि, महात्मा, संन्यासी, साधु एवं सरस्वती के उपासक ज्ञानी पुरुष सदा लक्ष्मी से दूर ही रहना चाहते हैं क्योंकि लक्ष्मी यानी धन महा अनर्थों का मूल है और अगर इसके साथ कृपणता, लोभ, आसक्ति और अनीति भी जुड़ गई तो फिर कहना ही क्या है।
इसीलिये हिन्दी के कवि ने मानव से कहा है कि तू इस भौतिक धन के संग्रह में क्यों जुटा हुआ है ? अगर व्यापार ही करना है तो ऐसा धर्ममय व्यापार कर कि उससे प्राप्त हुआ लाभ तेरे अगले घर में भी साथ ले जाया जा सके ।
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