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________________ पास हासिल कर शिवपुर का २३१ राजा धनस्व से भी ऋषि ने अपने आने का उद्देश्य और उसके साथ जुड़ी हुई शर्त बताई। किन्तु धनस्व भी तो अगस्त्य का शिष्य था। उसके राज्य कोष का भी वही हाल था । हिसाब देखने पर स्पष्ट ज्ञात हो गया कि श्रुतर्वा के समान यहाँ भी कोष में आया हुआ धन न्यायोपार्जित है और आवश्यकता के जितना ही है, अधिक नहीं। महर्षि को यहाँ भी अपने उद्देश्य में सफलता नही मिली किन्तु अपने शिष्य से उन्हें जैसी आशा थी, वह पूर्ण होने से असीम प्रसन्नता हासिल हुई। अपने शिष्य के लिए महान गौरव का अनुभव करते हुए वे इसी प्रकार अपने और भी कई शिष्यों के पास गये किन्तु सभी के यहाँ उन्होंने धन का सन्तुलन व्यवस्थित एवं संतोषजनक पाया। इस बात पर उन्हें बड़ी खुशी हुई कि उनके सब शिष्य नीति के मार्ग पर चल रहे हैं। किन्तु उन्हें तनिक क्षोभ भी इस बात का था कि वे अपनी पत्नी की इच्छा पूरी नहीं कर पाए हैं। मन ही मन दुखी होते हुए वे घर की ओर आ रहे थे कि मार्ग में उन्हें इल्वण नामक दैत्य मिल गया । इल्वण ने भी ऋषि को चिन्तातुर देखकर कारण पूछा और ऋषि ने अपनी चिंता का हाल बता दिया । इल्वण महर्षि की बात सुनकर बोला- "महाराज ! आप चिंता क्यों कर रहे हैं ? मेरे पास अपार धन है और उसमें से आप जितना चाहें ले सकते हैं।" अगस्त्य ऋषि इल्वण के महल में भी गये । किन्तु अपनी शर्त उन्होंने वहां भी नहीं छोड़ी और इल्वण के यहाँ का हिसाब-किताब देखने लगे। पर उसे देखने पर ज्ञात हुआ कि इल्वण का सारा धन अन्याय, क्रूरता एवं अनीति से पैदा किया गया है, इसके अलावा उसे कभी उत्तम कार्यों में खर्च नहीं किया गया है। इसलिए वह बढ़कर बड़ी भारी राशि बन गया है। यह देखकर महर्षि ने सोचा-"इस पापोपार्जित धन से पत्नी के लिए आभूषण बनवाना उचित नहीं है और अगर ऐसा किया भी तो उसके लिये हितकर नहीं होगा।" यह विचार कर उन्होंने इल्वण का एक पैसा भी नहीं लिया और खाली हाथ अपने आश्रम में लौट आए। ऋषिपत्नी लोपामुद्रा ने जब पति को खाली हाथ आते देखा तो उसका चेहरा गहरी उदासी और निराशा से भर गया । ___ इस पर महर्षि ने पत्नी को समझाते हुए कहा-"देवी ! मैंने तुम्हारे आभूषणों के लिए धन प्राप्त करने की बहुत कोशिश की किन्तु सफलता नहीं मिल सकी। इसका कारण यही है कि जो व्यक्ति धर्मपूर्वक कमाई करते हैं तथा उदारतापूर्वक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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