________________
२३०
आनन्द प्रवचन | छठा भाग
वे बड़े आश्चर्य से बोले-"देवी ! आज यह विचित्र इच्छा कैसी ? जीवन में अभी तक तो तुमने कभी गहनों की चाह की नहीं, पर अब इस कामना का क्या कारण है ?"
लोपामुद्रा बोली-“यह ठीक है कि मैंने अभी तक कभी आभूषण नहीं पहने, पर मेरी सहेलियाँ मुझे सदा ही इस अभाव के लिए ताने देती रहती हैं, अतः मैं भी आभूषण पहनकर उनके व्यंग-बाणों से बचना चाहती हूँ।"
महर्षि पत्नी की स्त्रियोचित भावना को समझ गये पर बोले- "देखो, मैं तुम्हारे लिए आभूषणों का प्रबन्ध करने जाता हूँ। किन्तु एक शर्त है, वह यही कि मैं अन्याय अथवा अधर्म से उपार्जित धन को प्राप्त करके तुम्हारे लिए आभूषण नहीं लाऊँगा। अगर कहीं धर्म एवं नीति से अर्जित धन मिल गया तो ही तुम्हारे लिए आभूषण ला सकूँगा।" पत्नी ने इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
अब अगस्त्य ऋषि ने सोचा कि सर्वप्रथम अपने भक्त राजा श्रुतर्वा के यहाँ चला जाय, सम्भवतः उसके यहाँ मेरी अभीष्ट-सिद्धि हो जायगी। यह विचार कर वे राजा श्रुतर्वा के राज्य में जा पहुँचे ।
राजा ने महर्षि को ज्यों ही देखा, उसका हृदय अपार हर्ष से गद्गद् हो गया। अत्यन्त भक्ति और श्रद्धा से उसने ऋषि का स्वागत-सत्कार किया तथा उनके आने का उद्देश्य पूछा । ऋषि ने सहज भाव से अपने आने का उद्देश्य बता दिया पर साथ ही यह भी कह दिया
"राजन् ! मैं केवल वही धन स्वीकार करूँगा, जो तुमने धर्मपूर्वक अपनी प्रजा के हित को ध्यान में रखते हुए अजित किया हो तथा उचित कार्यों में व्यय करने के बाद बचा हो।"
राजा ने महर्षि अगस्त्य की बात को गम्भीरतापूर्वक सुना और तब उनसे प्रार्थना की- "भगवन् ! आप स्वयं ही राज्य के कोषाध्यक्ष से आय-व्यय का हिसाब समझ लें तथा आपके योग्य अर्थ हो तो स्वीकार करें।"
ऋषि ने ऐसा ही किया और स्वयं जाकर कोष का हिसाब देखा। पर उसे देखने पर मालूम हुआ कि यद्यपि कोष का समस्त धन धर्म एवं न्यायोपार्जित है किन्तु आवश्यक कार्यों में व्यय करने के पश्चात उसमें बचत कुछ नहीं है। जमा और खर्च समान है।
__ ऐसी स्थिति में महर्षि को धन प्राप्त नहीं हो सका किन्तु अपने शिष्य राजा श्रुतर्वा की सत्य, न्याय एवं धर्ममय वृत्ति को देखकर उन्हें अपार हर्ष हुआ और उसकी सराहना करते हुए वे दूसरे शिष्य राजा धनस्व के यहाँ पहुँचे ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org