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________________ २३४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग टैक्स, सैलटैक्स तथा इसी प्रकार जमीन, मकान आदि अनेक प्रकार के टैक्सों के रूप में आप लाखों रुपया सरकार को दे देते हैं । क्योंकि न देने पर वह कड़ाई से पेश आती है । इसका अर्थ यही है कि आप मधुरता से कही हुई बात को नहीं मानते, अपितु कड़वी जबान से झुकते हैं । पर बन्धुओ, कड़ाई और मजबूरी से त्याग करने पर आपका क्या लाभ हो सकेगा ? कुछ भी नहीं । आपका भला तो तभी हो सकेगा जबकि आप भगवान के वचनों पर विश्वास करते हुए संत-महात्माओं एवं ज्ञानी पुरुषों के मधुरता पूर्वक कहे गये उपदेशों को अमल में लाएँगे । कवि भी आपको मीठे शब्दों में यही कह रहा है कि आप अगर उस घर के लिए अर्थात् परलोक के लिए कुछ कमाना चाहते हैं तो मन रूपी तखड़ी ( तराजू ) की डंडी ठीक रखें । अर्थात् — मन का सन्तुलन बराबर बनाए रखें ताकि आपके व्यापार से अनीति, अन्याय एवं अधर्म दूर रहें और आपकी मन रूपी डंडी इनकी ओर न झुके । परिणाम यह होगा कि आपका शरीर और वचन जो दो पलड़ों के रूप में है, वह बराबर और संतुलित रहेगा । अब विचार यह करना है कि इन पलड़ों के द्वारा क्या तौलना चाहिए ? कवि का कथन है कि इनके द्वारा हमें धर्म रूपी वस्तु को तौलना है । यानी नव तत्व, छः काया, चौबीस दंडक एवं पच्चीस क्रियाओं का ज्ञान करना है । इनके बिना आत्मा का उत्थान नहीं होता और में जा पड़ती है । इसलिए जिनेश्वर प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन न प्रतिक्षण आत्म- हित के व्यापार में जुटा रहना है । आगे कहा गया है वह घोर कष्ट करते हुए हमें विषय पाँचों से दिल कर न्यारा, नफा तुझको देंगे प्यारा । ले पाँचों को जीत, पास हासिल कर शिवपुर का । 1 हमारे पाँच इन्द्रियाँ हैं । इनके असंयमित होने के कारण ही कर्म - बन्धन होता है, इसलिए इन पाँचों को अपने विषयों से अलग रखना है । ये इन्द्रियाँ वेकाबू होकर आत्मा को अत्यन्त हानि पहुँचाती हैं । नफा जरा भी नहीं होने देतीं। इसके अलावा यह भी आवश्यक नहीं है कि ये पाँचों मिलकर ही प्राणी का नुकसान करती हैं । इनमें से प्रत्येक ही इतनी जबर्दस्त है कि वह अकेली ही जीव को भारी नुकसान पहुँचा सकती है । अभी इस विषय में कहा भी है "कुरंग, मातंग, पतंग, भृगाः, मीना हताः पंचभिरेव पंच ।” Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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