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पास हासिल कर शिवपुर का
२२७ इसलिये इन सब पुण्य-संयोगों को पूंजी मानकर हमें चाहिये कि इसके द्वारा शुभ-कर्मों का संचय नफे के रूप में करें तथा तप एवं त्याग से पूर्व-उपार्जित पापकर्मों के कर्जे को भी अदा करते चलें। अगर हमने ऐसा नहीं किया यानी पुण्य रूपी पूँजी को केवल सांसारिक सुखोपमोगों में समाप्त कर दिया और त्याग, तप, साधना एवं संयम के अभाव में पूर्व कर्मों की निर्जरा नहीं की यानी उस कर्ज को नहीं चुकाया तो फिर क्या होगा ? पुण्य-रूपी पूंजी नष्ट हो जाएगी, भविष्य के लिये शुभ-कर्म रूपी दो पैसों का संग्रह नहीं होगा तथा पहले का पाप रूपी कर्ज भी ज्यों का त्यों बना रहेगा । ऐसी स्थिति में आगे क्या होगा इसका अन्दाज आप स्वयं ही लगा सकते हैं। बिना पूंजी के और बिना कुछ संचय किये आप अपनी मंजिल तक किस प्रकार पहुँच सकते हैं ? फिर तो यही संसार है और इसी में इतस्ततः भटकते रहना है ।
___ इसीलिये बन्धुओ, हमें घाटे का व्यापार नहीं करना है। वरन हर हालत में नफे के विषय में सोचना है । और नफा तभी मिल सकेगा जबकि अपने मन, वचन एवं शरीर, इन तीनों योगों को हम नियन्त्रण में रखकर आत्मा की शक्ति को निरर्थक नहीं जाने देंगे। हमारी आत्मा में तो अनन्त शक्ति है और चाहने पर इसके द्वारा हम सम्पूर्ण पूर्वोपार्जित कर्म-रूपी कर्जे को चुकाकर नफे के रूप में मोक्ष हासिल कर सकते हैं। किन्तु इसके लिये चाहिये केवल संयम । मन एवं इन्द्रियों पर संयम रखे बिना केवल ऐसी चाह रखना आकाश के तारे तोड़ने की इच्छा के समान निरर्थक है।
___ संयति या साध आत्मा की शक्ति को पहचान लेते हैं और इसीलिए अपने तीनों योगों पर पूरा संयम रखते हैं । साधु अत्यन्त कम और सीमित वस्त्र रखते हैं। वह क्यों ? क्या श्रावक उन्हें वस्त्र नहीं देना चाहते ? नहीं, श्रावक तो साधु के समक्ष वस्त्रों का अंबार लगा सकते हैं. पर साधु स्वयं ही लेना नहीं चाहते। अपनी लज्जा ढकने के अलावा अधिक वस्त्र रखने को वे परिग्रह मानते हैं और फिर व्यर्थ का बोझा उठायें क्यों?
इसी प्रकार आहार के सम्बन्ध में कहा जा सकता है। आप गृहस्थ हैं और आपका अपना एक-एक घर है फिर भी आप अच्छे से अच्छा भोजन करते हैं। किन्तु साधु के लिए तो अनेक घर हैं । वह चाहे तो नीरस भोज्य-पदार्थों वाले घरों को छोड़ कर अन्य अनेक घरों से मेवा, मिष्टान्न और सरस से सरस भोज्य-पदार्थ ला सकते हैं। श्रावक अच्छी से अच्छी वस्तु साधु को बहराने के लिए उत्सुक रहते हैं। किन्तु साधु क्या ऐसी भावना मन में रखते हैं ? नहीं, वे मेवे-मिष्टान्न को शरीर में प्रमाद एवं आलस्य लाने वाली हेय वस्तुएँ मानते हैं । वे केवल इतना ही ध्यान रखते हैं कि शरीर को चलाने के लिए कुछ न कुछ उदर में डालना है। जीभ के स्वाद की उन्हें परवाह नहीं होती । अनेक संत-सती तो समस्त खाद्य-पदार्थों को एक ही पात्र में लेकर एक
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