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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
द्रव्य के रूप में ग्लानि रहित होकर ग्रहण करते हैं । साथ ही उसे भी ठूंस-ठूंस कर पेट में नहीं भरते, ऊनोदरी तप का भाव मन में रखते हुए अल्पाहार करते हैं । अल्पाहार साधना में सहायक बनता है । इस विषय में कहा भी है
अप्पाहारस्सन इंदियाई विसएस संपत्तन्ति । नेव किलम्मइ तवसा, रसिएसु न सज्जए यावि ॥
- बृहत्कल्प भाष्य - १३३१ अर्थात् — जो अल्पाहारी होता है, उसकी इन्द्रियाँ विषय भोग की ओर नहीं । तप का समय आने पर भी वह क्लांत नहीं होता और न ही सरस भोजन में आसक्त होता है ।
इस प्रकार मुनि अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने के लिए शुद्ध, चाहे वह रूखासूखा और नीरस हो, ऐसा अल्पाहार लेते हैं, परिग्रह तनिक भी न बढ़े इस दृष्टि से कम से कम वस्त्र रखते हैं तथा वस्त्रों के अभाव में घास-फूस एवं तृणादि पर सोकर उनके चुभने से होने वाली पीड़ा को पूर्ण शान्ति एवं समभाव रखते हुए सहन करते हैं तथा अत्यधिक शीत एवं ग्रीष्म से तनिक भी न घबराते हुए अपनी साधना समीचीन रूप से दृढ़ बनाते चलते हैं और यह सब तभी होता है, जबकि वे अपनी इन्द्रियों पर संयम रखते हैं तथा मन को पूर्ण रूप से काबू में किये रहते हैं । संयति अर्थात् संयमी के यही लक्षण हैं । वह अपनी पुण्य रूपी पूंजी और आत्मिक शक्ति को इन्द्रियों की तृप्ति में व्यर्थ खर्च नहीं करता अपितु उसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना में लगाकर अनेक गुना नफा हासिल करता है ।
एक कवि ने इसी विषय को लेकर अपने एक भजन में कहा है
क्या हटड़ी रहा खोला, बनज कुछ करले उस घर का । मन दाण्डी को ठीक सुधाले, तन के मोस पालड़े पाले । धर्म जिनस नित तोल, खौफ दिल में रख दिलवर का ।
कवि चेतावनी देता हुआ कह रहा है
" अरे मानव ! तू इस संसार के बाजार में सांसारिक पदार्थों का ही व्यापार क्या कर रहा है ? इस हाट में खुली हुई दुकान से कमाया हुआ धन आगे चलकर तेरे क्या काम आयगा ?"
" इसलिए व्यापार ही करना है तो कुछ उस घर यानी परलोक के लिए भी तो कर ले ! अनीति, अधर्म और बेईमानी से कमाया हुआ जड़ द्रव्य तो यहीं पड़ा रह जायगा, केवल उसके द्वारा उपार्जित अशुभ कर्म ही आत्मा के साथ रहेंगे। पर वे उलटे कुगति में ले जाकर कष्ट पहुँचायेंगे ।"
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