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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
पौत्र आदि । पर इन सबकी प्राप्ति से उन्हें क्या लाभ होता है ? केवल असंख्य कर्मों का और भी बन्धन होता । फिर ऐसी अज्ञान तपस्या से क्या फायदा है ?
चित्त मुनि को भी अपने दृढ़ संयम और उत्कृष्ट साधना से न जाने कितना सुन्दर फल मिलता किन्तु उन्होंने अपनी सम्पूर्ण साधना के बदले चक्रवर्ती राजा होने का निदान किया तथा राजा होकर भोग-विलास के कारण इतने पापकर्मों का उपार्जन कर लिया कि फिर नरक में जाना पड़ा ।
इसीलिये कहा गया है
नन्नत्य निज्जरट्ट्याए तवमहिट्ठेज्जा ।
- दशवैकालिक सूत्र -४ तपस्या केवल कर्म - निर्जरा के लिये करना चाहिये । इहलोक - परलोक तथा यश-कीर्ति के लिये नहीं ।
जो भव्य प्राणी इस बात को भलीभाँति समझ लेते हैं उनका चित्त शांत, पवित्र एवं निस्वार्थ भावनाओं से परिपूर्ण रहता है तथा वे अपने मन, वचन और शरीर, इन तीनों योगों को संयमित रखते हैं। अगर वे ऐसा न करें तथा मन व इन्द्रियों को मनमानी करने दें तो फिर भविष्य के लिये क्या अर्जन कर सकेंगे ? कुछ भी नहीं ।
न का व्यापार करना है, घाटे का नहीं
आप गृहस्थ हैं और भलीभांति जानते हैं कि व्यवसाय में पहले पूँजी लगाई जाती है और उससे नफा मिलता है । आप उस नफे के द्वारा ही अपने घर का खर्च चलाते हैं तथा इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि आमदनी से अधिक खर्च न हो जाय । अगर आमदनी से अधिक खर्च करेंगे तो धीरे-धीरे मूल पूँजी समाप्त हो जाएगी और आप कोरे के कोरे रह जाएँगे, पेट भरना भी कठिन हो जाएगा । इसलिये बड़ी सतर्कतापूर्वक आप मूल पूँजी को सुरक्षित रखते हुए इसी प्रयत्न में रहते हैं कि घर का खर्च चलता रहे, ऊपर से दो पैसे बच भी जायँ और अगर किसी का कर्ज लिया हुआ हो तो वह भी अदा किया जा सके ।
ठीक यही हिसाब आध्यात्मिक क्षेत्र में भी होना चाहिए । प्रत्येक आत्मार्थी को यह विचार करना चाहिये कि हम पापरूपी कर्ज और पुण्य रूपी पूँजी साथ में लेकर इस मनुष्य योनि में आए हैं । यद्यपि पाप रूपी कर्ज हमें तब तक दिखाई नहीं देता, जब तक धनाभाव, शारीरिक रोग या अन्य संकटों के रूप में उनका सामना नहीं होता । किन्तु मानव जन्म, उच्च कुल, उच्च जाति, उच्च धर्म एवं सद्गुरु आदि के संयोग के रूप में पुण्य की प्राप्ति का पता चल जाता है ।
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