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पास हासिल कर शिवपुर का
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आया कि वह इन भोगों के परिणामस्वरूप घोर कर्म - बन्धन करके आत्मा का अहित करेगा । ऐसा विचार आने पर करुणा के वश उन्होंने ब्रह्मदत्त को जगाने का निश्चय किया तथा उसको नाना प्रकार से प्रबुद्ध करने की कोशिश की ।
. किन्तु परिणाम कुछ नहीं हुआ । ब्रह्मदत्त को अपने पूर्वजन्म के भाई की एक भी बात गम्य नहीं हुई और वह उसी प्रकार संसार के सुखों को भोगते हुए अन्त में कुगति को प्राप्त हुआ ।
एक भजन में कहा भी है
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'चित्त कही ब्रह्मदत्त नहीं मानी, नरक गयो भोगां में राची ।'
बन्धुओ, ब्रह्मदत्त को नरक में केवल इसीलिये जाना पड़ा कि उसने अपने मन एवं इन्द्रियों पर संयम नहीं रखा | पूर्वजन्म में मुनि बनकर उग्र साधना की पर चक्रवर्ती की रानी को देखकर काम-भोगों की कामना की और फिर अगले जन्म में भी अपने भाई के द्वारा अनेक प्रकार से समझाये जाने पर भी नहीं समझा । परिणाम जो हुआ वह आप सुन ही चुके हैं ।
हीरे के बदले कंकर लेना मूर्खता है
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प्रत्येक साधक को निःस्वार्थफलस्वरूप कुछ भी पाने की
यहाँ एक बात और ध्यान में रखने की है कि भाव से साधना करनी चाहिये । अपनी साधना के लालसा अगर साधक मन में रखता है तो समझना चाहिये कि कोड़ी के मोल पर वह हीरा दे रहा है । सम्भवतः आप इस बात को नहीं समझे होंगे । मेरा आशय यह है कि त्याग, व्रत, तप एवं साधना का महत्व इतना ऊँचा होता है कि उत्कृष्ट भाव आ जायें तो आत्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त भी हो सकती है । किन्तु ऐसी उत्कृष्ट साधना के बदले अगर कोई साधक कुबेर जितना धन पा लेने की, चक्रवर्ती बन जाने की अथवा स्वर्ग में देवता हो जाने की कामना करता है तथा उसके लिये निदान कर लेता है तो उसकी सम्यक् साधना का जो महान फल प्राप्त होने वाला होता है वह मारा जाता है ।
हमारी बहनें अगर अठाई का तप करती हैं तो गाती हैं
अठाई कियाँ रो कांई फल होसी ? अन्न होसी, धन होसी, पूतां रो परिवार होसी ।
अब आप देखिये कि जिस तपस्या से उनके असंख्य कर्मों की निर्जरा होने वाली होती है, उस तपस्या के फलस्वरूप वे क्या माँगती हैं ? अन्न, धन और पुत्र
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