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________________ पास हासिल कर शिवपुर का २२३ अर्थात्-मृग, हाथी, पतंग मछली और भ्रमर, शब्दादि एक-एक इन्द्रिय के वश में होकर भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो फिर पाँचों इन्द्रियों के विषयों में जकड़ा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है ? वास्तव में ही इन्द्रियों का आकर्षण बड़ा प्रबल होता है। अपने आपको इनसे बचाना बड़े साहस, शक्ति और त्याग पर निर्भर है। श्रीमद्भागवत में तो कहा है इन्द्रियाणि प्रमाथीनि, हरन्त्यपि यतेमनः । अर्थात्-इन्द्रियाँ अत्यन्त तंग करने वाली होती हैं और दाव लग जाने पर यति अथवा संन्यासी के मन को भी विचलित कर देती हैं। महर्षि विश्वामित्र के विषय में आपने पढ़ा या सुना ही होगा कि वे घोर तपस्वी थे किन्तु मेनका नामक अप्सरा जब स्वर्ग से उन्हें विचलित करने आई तो उसके रूप एवं हाव-भाव पर मोहित होकर वे अपनी साधना भंग कर बैठे और मेनका से संसर्ग करने पर उनके कन्या हुई जिसका नाम शकुन्तला था । इसी प्रकार हमारे यहाँ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की कथा भी आती है। पूर्व जन्म में वे दो भाई थे—चित्त एवं संभूति । दोनों ने संयम का मार्ग अपनाया था और दृढ़ साधना करके तेजोलेया की सिद्धि भी हासिल कर ली थी। किन्तु एक बार एक चक्रवर्ती राजा अपनी रानी सहित उनके दर्शनार्थ आए और संभूति उनकी रानी के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गये। उनके हृदय में प्रबल इच्छा हो गई कि मैं भी चक्रवर्ती राजा बनें और इस रानी के जैसी ही सुन्दर पत्नी पाकर काम-भोगों का आनन्द हासिल करूं। __ अपनी इस प्रबल कामना के वश में होकर उन्होंने संथारे (समाधि) से पूर्व यही 'नियाणा' कर लिया कि मेरी तपस्या और साधना का फल मुझे मिले तो मैं अगले जन्म में चक्रवर्ती राजा बनूं । हुआ भी ऐसा ही। चित्त और संभूति दोनों मुनि अगले जन्म में भी मनुष्य पर्याय में आए। चित्त श्रेष्ठि पुत्र बना, पर उसने पुनः संयम ग्रहण कर लिया। आप सोचेंगे कि जब चित्त ने मुनि बनकर उत्कृष्ट साधना की थी और अपनी साधना को कहीं भी खंडित नहीं होने दिया था तो पुनः जन्म लेने की क्या आवश्यकता थी ? बन्धओ, इस विषय में गम्भीरता से विचार करना चाहिए। आप देखते हैं कि आज बड़े-बड़े वैज्ञानिक वर्षों तक अनुसंधान करते हैं, कठिन श्रम करते हैं तव जाकर उन्हें अपने किसी आविष्कार में सफलता मिलती है। इतना ही नहीं, अनेक बार एक वैज्ञानिक जिस आविष्कार की सफलता के लिये प्रयत्न करता है वह अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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