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पास हासिल कर शिवपुर का
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
संवर तत्व के सत्तावन भेदों में से पच्चीसवें भेद 'तृण परिषह' को लेकर उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्याय की चौतीसवीं गाथा पर कल से विवेचन चल रहा।
गाथा के पहले चरण में 'अचेलगस्स' और 'लू हस्स' शब्द आए हैं। उनके विषय में कल बताया गया था। आज उसी गाथा में आगे 'संजयस्स' शब्द आता है
और हमें उसके विषय में विचार करना है । 'संजयस्स' का संस्कृत में 'संयतस्य' हो जाता है। यत यानी प्रयत्न करना और संयत यानी भली प्रकार में मोक्ष-मार्ग की ओर गमन के लिये कटिबद्ध हो जाना। यत से पहिले जो 'सं' अक्षर आया है वह रोकने का कार्य करता है। भगवान ने बाईस परिषहों को सहन करने का आदेश दिया है । पर इन्हें वही सहन कर सकता है जो संयत रहे। साधु को संयति कहा जाता है इसका यही कारण है कि वे सम्पूर्ण परिषहों को सहन करते हैं। अपने मन, वचन एवं शरीर को पूर्ण रूप से नियन्त्रण में रखते हुए दृढ़ता से साधना पथ पर अग्रसर होते हैं। संयति कैसे बना जाय ?
संयति बनना या संयम से रहना जीवन को सफल बनाने के लिये आवश्यक है। संयम के अभाव में हमारा मन एवं सम्पूर्ण इन्द्रियाँ वेकाबू हो जाती हैं । परिणाम यह होता है कि वे सांसारिक विषयों में अधिकाधिक गृद्ध होती जाती हैं और कर्मों का भार बढ़ता चला जाता है। कर्मों का बढ़ना संसार को बढ़ाना है और इस प्रकार आत्मा अनन्त काल तक जन्म मरण से मुक्त नहीं हो पाती । 'विवेक चूड़ामणि' में कहा गया है
शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पञ्च, पञ्चत्वमापुः स्वगुणेन बद्धा। कुरङ्ग मातङ्ग पतङ्ग मीनभृङ्गा नरः पञ्चभि रञ्चितः किम् ।
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