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अचेलक धर्म का मर्म
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वस्तुतः संत- मुनिराज संसार ही में रहते हैं, आहार - जल लेते हैं तथा आप सबके साथ प्रेम से बोलते हैं, किन्तु उनका अन्तःकरण रूखा रहता है । इसका कारण यही है कि न उनका शरीर पर ममत्व होता है और न ही संसार के अन्य किसी भी पदार्थ पर । वे केवल अपनी आत्मा को कर्म - रहित बनाने की आकांक्षा रखते हैं, उसके उपयुक्त साधना करते हैं और संसार के अन्य प्राणियों पर भी महान् करुणा-भाव रखते हुए मुक्ति के मार्ग का ज्ञान कराते हैं ।
यही कारण है कि हमारे यहाँ गुरु का बड़ा भारी महत्व माना गया है। गुरु के अभाव में मोक्ष का इच्छुक व्यक्ति चाहे दिन-रात परमात्मा का भजन करता रहे और उनके नाम की माला फेरता रहे, आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता ।
आदिपुराण में गुरु की महिमा बताते हुए कहा गया है
न बिना यानपात्रेण तरितुं शक्यतेऽर्णवः । नर्ते गुरूपदेशाच्च सुतरोऽयं भवार्णवः ॥
अर्थात् — जिस प्रकार जहाज के बिना समुद्र को पार नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार गुरु के मार्ग-दर्शन के बिना संसार सागर का पार पाना बहुत कठिन है । सच्चे गुरु मनुष्यों के अज्ञानांधकार को नष्ट करके उनके हृदय में ज्ञान की ज्योति जलाते हैं तथा मलिन एवं विकार युक्त भावनाओं के स्थान पर आत्मिक सद्गुणों की स्थापना करते हैं । वे संसार के भोगों से विरक्त होकर क्रोध, मान, माया एवं लोभ के स्थान पर क्षमा, मृदुता, सरलता और निस्पृहता अंगीकार करते हैं तथा अनादिकालीन आत्मिक कलुष को धोने के लिए संयम और संवर की आराधना करते है तथा अपने संसर्ग में आने वाले प्रत्येक प्राणी को भी संवर की महत्ता समझाकर उसे अपनाने की प्रेरणा देते हैं ।
जो भव्य प्राणी भगवान की वाणी पर विश्वास रखते हुए संवर का मार्ग अपनाता है, वह अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखता हुआ शनैः-शनैः आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति कर लेता है तथा अपने मानव-जन्म को सफल बना जाता है ।
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