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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
का ध्यान रखना चाहिए। समाज के अंग उसके सदस्य होते हैं अतः अग्रणी व्यक्तियों को विचार करना चाहिए कि जिस प्रकार शरीर के एक भी अंग के पीड़ित होने पर हमारा पूरा शरीर कष्ट का अनुभव करता है तथा हम अविलम्ब डॉक्टर या वैद्य को बुलाकर रोग का निवारण करने का प्रयत्न करते हैं । इसी प्रकार समाज रूपी शरीर के अंग-रूपी किसी भी व्यक्ति के दुखी या अभावग्रस्त होने पर हम पीड़ा का अनुभव करें तथा उसे मिटाने का भी तुरन्त प्रयास करें ।
बन्धुओ, अगर आप सब समाज के नेता ऐसा विचार करेंगे तो आपके हृदय में से मेरेपन की भावना निकल जाएगी । क्योंकि जब आपके शरीर का कोई भी अंग यह नहीं सोचता कि दूसरे अंग में कष्ट है तो हमारा क्या बिगड़ता है, वह तो किसी भी अन्य अंग के दुःख को अपना दुःख मानता है और जल्दी से जल्दी वह दुःख मिटे, यह चाहता है तो फिर आप समाज रूपी शरीर के किसी भी अंग के दुःख को अपना दुःख क्यों नहीं समझते ?
जिस दिन ऐसी भावना आपके हृदय में पूर्ण रूप से घर कर जाएगी, आपको जो कुछ भी आपके पास है, वह अपना नहीं लगेगा और वह सब कुछ पूरे समाज का और समाज का ही क्या, विश्व के प्रत्येक प्राणी का महसूस होगा । आप अपनी सम्पत्ति को जरूरतमन्दों की अमानत समझने लगेंगे और उनकी जरूरतें पूरी करने में प्रसन्नता का अनुभव करेंगे । यही वृत्ति साधुवृत्ति कहलाती है ।
संतों में कभी मेरापन नहीं होता । बाह्य पदार्थों की तो बात ही क्या है, उसे तो वे त्याग ही देते हैं, अपने शरीर को भी मेरा नहीं मानते । उनके लिए शरीर
केवल साधना करने का यन्त्र होता है और यन्त्र समीचीन रूप से चले, इसके लिए जिस प्रकार तेल एवं कोयला आदि दिया जाता है, उसी प्रकार वे शरीर चलाने के लिए रूखा-सूखा जो भी मिल जाता है, दे देते हैं । न वे उसे सर्दी या गर्मी से बचाने का अधिक प्रयत्न करते हैं, न अलंकृत करके उसके सौन्दर्य को बढ़ाना चाहते हैं और न ही उसे आराम पहुँचाने के लिए बिछाने अथवा ओढ़ने के अधिक वस्त्रों की अपेक्षा रखते हैं । जो भी रूखा-सूखा किन्तु शुद्ध मिलता है, खा लेते हैं, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहनकर लज्जा का निवारण करते हैं तथा घास-फूस या तृणों पर रात्रि के कुछ घंटे
व्यतीत कर देते हैं ।
हमारा आज का विषय 'तृण परिषह' को लेकर ही प्रारम्भ हुआ था किन्तु प्रसंगवश मैंने काफी बातें आपको बता दी हैं । संत सभी परिषहों को पूर्ण समभाव पूर्वक सहन करते हैं और उनके उपस्थित होने पर किंचित् भी खेद - खिन्न नहीं होते । उलटे उन्हें सहन करने में आंतरिक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं । उनका अंतःकरण सांसारिक सुखों और उनके साधनों की ओर पूर्णतया रूक्ष हो जाता है, जिसका उल्लेख 'लूहस्स' शब्द के द्वारा किया गया है ।
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