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अचेलक धर्म का ममं
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है और उस क्षणिक स्वाद के लिए ही मानव गृद्धता के कारण कर्मों का बन्धन कर लेता है । जीभ से नीचे जाते ही तो प्रत्येक पदार्थ समान और निकृष्ट बन जाता है । एक कहावत भी है-"उतरा घाटी और हुआ माटी।"
आप सभी जानते हैं कि पेट में पहुँचने के बाद प्रत्येक खाद्य-पदार्थ की क्या दशा होती है ? मराठी जबान में संत तुकाराम जी कहते हैं
"मिष्टान्नाची गोड़ी, जिमेच्या अग्रणी,
मशक भरल्या वरी, स्वाद नैणे।" अर्थात्-मिठाई की मिठास तभी तक है, जब तक वह जबान के अग्रभाग पर है । 'मशक भरल्या वर' अर्थात् पेट में पहुँच जाने पर उसका कोई स्वाद नहीं रहता।
इसलिए मुँह में रही हुई जिह्वा को तो केवल शरीर के पोषण का ध्यान रखना चाहिए। यह नहीं कि स्वाद-लोलुपता के कारण भक्ष्याभक्ष्य का विचार किये बिना अविवेक पूर्वक निकृष्ट पदार्थ, जैसे मांस, मदिरा आदि को ग्रहण करके इन्द्रियों को भोगों की ओर बढ़ाए तथा इन वस्तुओं के बुरे प्रभाव से ज्ञान की ज्योति को मन्द करने में सहायक बने । मांस-मदिरा, आदि का सेवन करने से बुद्धि कुंठित हो जाती है, मस्तिष्क विचारशील नहीं रहता और हृदय क्रूर बन जाता है। ये त्रिदोष मिलकर मनुष्य की आत्मा को बहुत ही हानि पहुंचाते हैं तथा उसे निविड़ कर्मों से जकड़ देते हैं। संत तुलसीदास जी ने एक दोहे में कहा है - __मुखिया मुख सो चाहिए खान पान सहूँ एक ।
पालहि पोसहिं सकल अंग, तुलसी सहित विवेक ॥ कहा गया है कि मुखिया को मुंह के समान होना चाहिए जो कि बड़े विवेक पूर्वक अपने अनुयायियों को सन्मार्ग पर चलाता है तथा उनके जीवन को उत्तम एवं सदाचरण से युक्त बनाता है ।
तो जिस मुंह को मुखिया से तुलना की गई है, उसे कितना विवेकवान होना चाहिए? मुंह से यहाँ आशय जिह्वा से है। इस जिह्वा को बड़े विवेकपूर्वक अभक्ष्य का त्याग करते हुए निरासक्त भाव से शुद्ध पदार्थों को उदर में पहुँचाना चाहिए ताकि उनका मन एवं मस्तिष्क पर सुन्दर प्रभाव पड़े तथा इन्द्रियाँ संयमित बनी रहें । मुख का तुलसीदास जी ने बड़ा भारी महत्व बताया है और इसीलिए कहा है कि जिस प्रकार मुंह शरीर के सम्पूर्ण अंगों को भोजन देकर पुष्ट बनाता है, इसी प्रकार मुखिया अथवा समाज के अग्रणी नेताओं को भी समाज रूपी शरीर के प्रत्येक अंग
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