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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
अनुभव करो। ऐसा करना ही समभाव में आना है और यही सच्चा साधुत्व है । निंदा और प्रशंसा, इन दोनों के होने पर मौन रहना ही साधुत्व का लक्षण है एवं समभाव का परिचायक है ।"
वास्तव में साधु को किसी के द्वारा निंदा किये जाने पर क्यों दुख होना चाहिए और प्रशंसा करने पर हर्ष का अनुभव क्यों करना चाहिए ? क्या कोई क्रोधित होकर उनकी जागीरी छीन लेगा या प्रसन्न होकर उन्हें स्वर्ग का राज्य इनाम में दे देगा ? नहीं, फिर परवाह किस बात की ?
अभी-अभी श्लोक में सन्त क्या कहते हैं यह बताया ही गया है । वे सांसारिक व्यक्तियों से कहते हैं— “यदि तुम धन के स्वामी हो तो हम वाणी के स्वामी हैं । यदि तुम लड़ने में बहादुर हो तो हम अपने विपक्षियों से शास्त्रार्थ करके उनके अहंकार रूपी ज्वर को मिटाने में कुशल हैं । यदि तुम्हारी सेवा धन के लोलुपी करते हैं तो हमारी सेवा अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश चाहने वाले मुमुक्षु प्राणी शास्त्र सुनने के लिए करते हैं । अगर तुम्हें हमारी गरज नहीं है तो हमें भी तुम्हारी बिलकुल गरज नहीं है । और लो हम तो यह रवाना होते हैं ।”
इस प्रकार सन्त न किसी की परवाह करते हैं और न किसी प्रकार के लोभ या आसक्ति के कारण किसी को प्रसन्न करने की फिक्र में रहते हैं । उन्हें भोग रोगस्वरूप दिखाई देते हैं और विलास में विनाश का कारण महसूस होता है । ऐसे वासनाओं को जीत लेने वाले सच्चे साधक या सन्त संसार के विषय-भोगों से विरक्त होकर त्यागवृत्ति अपना लेते हैं तथा स्वयं संयम की साधना करते हुए अज्ञानी व्यक्तियों को भी यह उपदेश देते हैं-
प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुधास्तत: किं, दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किम् । सम्मानिता प्रणयिनो विभवैस्तत: किं, कल्पं स्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम् ॥ जीर्णा कन्या ततः किं सितममलपटं पट्टसूत्रं ततः किं, एका भार्या ततः किं यकरिसुगणैरावृतो वा ततः किं, भक्तं भुक्तं ततः किं कदनमथवा वासरान्ते ततः किं, व्यक्तं ज्योतिर्नवांतर्मथित भवभयं वैभवं वाततः किम् ।
सन्त क्या कहते हैं ? यही कि - मनुष्यों को सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति करने वाली लक्ष्मी मिली तो क्या हुआ ? अगर शत्रुओं को पदानत किया तो क्या ? धन से
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