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अचेलक धर्म का मर्म
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पहुँचा और उसने विविध प्रकार के कटु शब्दों और गालियों से कब्रों को संबोधित करना प्रारम्भ किया । घन्टों तक जी भर कर गालियाँ देता रहा और जब थक गया तो पुनः सन्त के पास लौट आया ।
सन्त ने उसे देखते ही पूछा - "क्यों भाई ! मेरे कथनानुसार तुम कब्रिस्तान में गये थे और कब्रों को गालियाँ दी थीं क्या ?"
युवक ने उत्तर दिया – “हाँ गुरुदेव ! आपकी आज्ञा पाते ही मैं कब्रिस्तान की ओर चला गया था तथा तब से अभी तक वहीं खड़ा खड़ा कब्रों को गालियाँ दे रहा था । पर जब बोलते-बोलते थक गया तो लौटकर आया हूँ । भगवन् ! बात यही है कि मैंने कब्रों को असंख्य गालियाँ दीं पर उन्होंने एक का भी जवाब नहीं दिया ।" सन्त ने युवक की बात ध्यान से सुनी और तब कहा - "ठीक है भाई ! तुम्हारी बात सत्य होगी । पर अब ऐसा करो कि कब्रों ने अगर गालियों का जवाब नहीं दिया है तो अब पुनः जाकर उनकी प्रशंसा और स्तुति करो। देखें अब वे क्या कहती हैं ?"
युवक पुनः चकित हुआ, किन्तु उसने सन्त की बात पर किसी प्रकार की शंका नहीं की और न अविश्वास किया। वह फिर से रवाना हुआ और सीधा वहीं पहुँच गया । वहाँ रहकर उस भोले युवक ने बड़े मधुर, प्रिय, सुन्दर तथा सम्मानजनक संबोधनों से कब्रों को सम्बोधित किया और उनकी नाना प्रकार से प्रशंसा तथा स्तुति की । बहुत गुण-गान भी किया ।
पर कब्रें भी कभी बोलती हैं क्या ? वे तो उसी प्रकार मौन रहीं और कब्रिस्तान में सन्नाटा छाया रहा । इस बार वह युवक जब फिर से कब्रों की प्रशंसा और स्तुति करके थक गया तो वहाँ से लौट आया और सन्त के समीप पहुँचा ।
सन्त ने युवक का चेहरा ध्यान से देखा और पाया कि जिज्ञासु युवक कुछ निराश सा हो रहा है तो मधुर मुस्कान सहित सान्त्वना पूर्ण स्वर से बोले
" वत्स ! तुम दुखी और निराश क्यों हो ? तुम्हारी जिज्ञासाओं का समाधान तो हो चुका है ।"
युवक सन्त के द्वारा कब्रिस्तान में भेजे जाने पर और कब्रों को गालियाँ देने और उसके बाद स्तुति करने की आज्ञा देने पर भी जितना चकित नहीं हुआ था, उतना गुरुजी की यह बात सुनकर चकित हुआ । उसने बड़े आश्चर्य से पूछा“भगवन् ! कब्रों ने न तो गालियों का कोई प्रत्युत्तर दिया और न प्रशंसा या स्तुति का । फिर मेरी जिज्ञासा का समाधान कैसे हो गया ?"
महात्मा जी प्रेम से बोले "बेटा ! कब्रों ने तुम्हें यही तो बताया है कि चाहे लोग जी भरकर निन्दा करें या प्रशंसा, उससे न क्रोध प्रकट करो और न ही हर्ष का
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