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________________ २१० आनन्द प्रवचन | छठा भाग प्राणी प्रिय होता है अतः किसी विशेष प्राणी के लिए उनकी ममता रहती ही नहीं। वे तो अपनी धुन में मस्त जिधर मुंह उठाते हैं उधर ही अपनी झोली लेकर चल देते हैं । इसलिए मिट्टी के सूखे गोले के समान उनसे कर्म नहीं चिपकते । श्री भर्तृहरि ने साधु की फक्कड़ता और धर्म तथा त्याग के प्रति रही हुई गौरवपूर्ण भावना का चित्र खींचा है कि साधु क्या विचार करता है ? श्लोक इस प्रकार है अर्थानामीशिषे त्वं वयमपि च गिरामीश्महे यावदित्थं, शूरस्त्वं वादिदर्पज्वरशमनविधावक्षयं पाटवं नः । सेवन्ते त्वां धनाढ्या मतिमलहतये मामपि श्रोतुकामा, मय्यप्यास्थानं ते चेत्त्वयिममसुतरामेष राजनगतोस्मि ॥ वस्तुतः संत फक्कड़ होते हैं । न उन्हें निन्दा की परवाह होती है। न उन्हें प्रशंसा की आकांक्षा । न उनके समक्ष धनवानों का महत्व होता है और न गरीबों के प्रति तिरस्कार की भावना । उन्हें केवल अपनी करणी पर सन्तोष होता है और वे अपने ज्ञान के प्रति विश्वास और शुद्धाचरण का बल रखते हैं। अपने निदकों या आलोचना करने वालों की तनिक भी परवाह न करते हुए वे क्षण भर में यह कहते हुए अन्यत्र चल देते हैं-"अज्ञानी व्यक्तियो ! अगर तुम धन के स्वामी हो तो हम वाणी के स्वामी हैं अर्थात्-हमें अपने वचनों पर पूरा अधिकार है । तुम चाहे हमें कटु वचन कहो या मधुर, हमारे लिए समान हैं। न हम मधुर वचनों से प्रसन्न होते हैं और न तुम्हारे कटु-वचनों को सुनकर उनका उत्तर ही देते हैं। यही हमारा कर्तव्य है और इसका यथाविधि पालन करना चाहिए ऐसा भगवान का आदेश है । समभाव हमारा सबसे बड़ा बल है । इसके द्वारा ही हम कषायों का मुकाबला करते हैं । एक उदाहरण हैसच्चा साधुत्व एक बार एक जिज्ञासु युवक किसी सन्त के पास गया और बोला- "भगवान ! सच्चा साधुत्व कैसे प्राप्त किया जा सकता है और समभाव किस प्रकार रखा जा सकता है ?" __ सन्त ने भक्त की बात सुनी और उस पर कुछ क्षण विचार करके बोले"वत्स ! तुम्हें अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करना है तो जाओ नगर के बाहर जो कब्रिस्तान है, वहाँ जाकर कब्रों को तुमसे जितनी गालियाँ दी जायँ दो और वे क्या जवाब देती हैं, यह मुझे आकर बताओ।" बेचारा युवक यह तो जानता था कि कहें भला कैसे बोलेंगी ? पर फिर भी गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य करके उसी समय वहाँ से चल दिया। वह कब्रिस्तान में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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