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________________ अचेलक धर्म का मर्म २०६ आप प्रश्न करेंगे कि आखिर साधु भी आहार-जल ग्रहण करते हैं, वस्त्र पहनते हैं, बोलते हैं और हँसते हैं । अर्थात् सभी क्रियाएँ करते हैं किन्तु उन्हें कर्मों का बन्ध नहीं होता और गृहस्थों को होता है, ऐसा क्यों ? __ इस प्रश्न का उत्तर मैं आपको 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के पच्चीसवें अध्याय की दो गाथाओं के आधार पर देता हूँ । गाथाएँ इस प्रकार हैं उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सो तत्थ लग्गई ॥४२॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्क गोलए ॥४३॥ अर्थात्-गीला और सूखा ऐसे मिट्टी के दो गोले दीवाल पर फेंकने से जो गोला गीला होता है, वह वहाँ चिपक जाता है, किन्तु सूखा हुआ गोला दीवाल पर नहीं चिपकता। इसी प्रकार काम-भोगों में मूछित दुर्बुद्धि जीव को कर्म लगते हैं, किन्तु विरक्त को सूखे गोले की तरह कर्म नहीं लगते । ___ आशय यही है कि गाथा में बताए गए गोलों के समान साधु और गृहस्थ हैं। गृहस्थ गीले गोले की तरह होता है क्योंकि उसकी काम-भोगों में आसक्ति होती है, धन के लिए लोभ होता है और परिवार के प्रति अत्यधिक मोह होता है। इसलिए कर्म उसकी आत्मा से निरन्तर चिपकते रहते हैं। किन्तु साधु जो कि संयमी होता है, वह धन पैसा तो रखता ही नहीं अतः उसके प्रति लोभ-लालच का सवाल ही नहीं होता, ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लेता है अतः काम-भोग की ओर भी उसका मन नहीं जाता। रही बात वस्त्र पहनने और पेट भरने की । आप जानते ही हैं कि साधु को न तो श्वेत वस्त्रों के अलावा किसी प्रकार का कीमती वस्त्र चाहिए और न मर्यादा से अधिक ही चाहिये क्योंकि अपने थोड़े से वस्त्र वे स्वयं ही उठाकर विचरण करते हैं, अपना वजन किसी को नहीं देते । ऐसी स्थिति में अधिक वस्त्र वे रखते नहीं और जितना रखते हैं, उस पर भी उनका ममत्व नहीं होता। इसी प्रकार उनके आहार का भी हाल है। अचित्त और निर्दोष आहार जितनी भी मात्रा में मिल जाता है तथा रूखा-सूखा जैसा भी प्राप्त होता है केवल शरीर टिकाने मात्र के लिए लेते हैं । उनके लिए सरस या नीरस पदार्थ समान होते हैं क्योंकि वे स्वाद के लिए नहीं खाते, पेट को भाड़ा देने के लिए खाते हैं। इसलिए खाद्य-पदार्थ के लिए उनमें नाममात्र की भी लोलुपता नहीं रहती और इन सबके अलावा वे अपने सम्पूर्ण परिवार को छोड़कर गृहस्थत्यागी हो जाते हैं । अतः मोह किसके लिए रहेगा? उनके लिए तो संसार का प्रत्येक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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