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________________ २०८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग सौ-दो सौ रुपए कोई महत्व नहीं रखते, इसी प्रकार मर्यादित कपड़े भी वस्त्र - रहित स्थिति में ही आ जाते हैं । आप श्रावक लोग अपने लिये गर्मियों के और सर्दियों के कितने वस्त्र रखते ? शायद ही किसी के पास इसकी गिनती हो । ठण्ड से बचने के लिए अनेक गरम वस्त्र, शाल, दुशाले और रूई से भरे हुए रजाई गद्द आदि-आदि । किन्तु साधु मर्यादित वस्त्र रखते हैं । अतः बहुत ही कम गिने-चुने टुकड़ े उनके पास होते हैं । इसलिए बहुत ही कम वस्त्र होना भी अचेल वस्त्र - रहितता की गणना में आ जाता है । कपड़ों के अर्थात् तो वास्तव में तो सूत्र की गाथा जिनकल्पी साधु को कही गई है क्योंकि शयन करने पर तृण जन्य कष्ट उन्हें पूर्ण रूप जो स्थविरकल्पी हैं वे भी शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार अत्यल्प वस्त्र रखते हुए इस परिषह को सहन करते हैं। क्योंकि उनके पास पर्याप्त वस्त्र नहीं होते और जो होते हैं वे भी बहुत पराने एवं जीर्ण-शीर्ण होते हैं । इसलिए उन्हें तृणादि में शयन करने से इस परिषह को अनिवार्य रूप से सहना पड़ता है । लक्ष्य में रखकर ही से होता है, किन्तु ध्यान में रखने की बात है कि संयमशील मुनि जब अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते तो फिर वस्त्रों को भी वे अधिक मात्रा में क्यों रखेंगे ? गाथा में 'लूहस्स' शब्द आया है । इसका अर्थ है- - रूक्ष वृत्ति वाला या रूखे दिल वाला । यह वृत्ति साधु के लिए उचित है । आप जानते हैं कि आपके मुंह में जो जीभ है, उसने जीवन भर में मनों घी खाया होगा, दूध पिया होगा, मिठाई का स्वाद लिया होगा और इसी प्रकार अनेकानेक सरस व्यञ्जनों को अपनी जिह्वा पर रखा होगा । किन्तु क्या किसी भी पदार्थ का स्वाद या रस उसके ऊपर बना रहता है ? नहीं, पदार्थ के उदर में जाते ही वह रूखी की रूखी बनी रहती है । साधु- वृत्ति भी ऐसी ही होती है । जो कुछ मिल गया ठीक है, नहीं मिला तो भी ठीक है । आप श्रेष्ठि लोग तो खाने बैठते हैं, पर जरा-सा किसी वस्तु में नमक कम हो गया या किसी पदार्थ में कोई कमी रह गई तो थालियाँ उठाकर फेंक देते हैं तथा बनाने वालों को गालियाँ देते हैं वह अलग । I किन्तु साधु- वृत्ति को अपनाने वाले संयमी प्राणी क्या ऐसा करते हैं ? नहीं । उन्हें वस्त्र मिला तो ठीक और नहीं मिला तो भी ठीक । इसी प्रकार आहारादि मिले तो ठीक और नहीं मिले तो भी कोई बात नहीं । ऐसी रूखी वृत्ति रहने के कारण ही तो वे समस्त परिषहों को सहन करते हैं और सांसारिक पदार्थों के मिलने, न मिलने पर हर्ष या दुख नहीं मानते । परिणाम यह होता है कि आसक्ति के अभाव के कारण उनकी आत्मा को कर्म अपनी लपेट में नहीं लेते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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