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________________ अचेलक धर्म का मर्म धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! आत्मा की उन्नति करने वाला संवर मार्ग है जो मन को, वचन को, शरीर को एवं इन्द्रियों को आश्रव की ओर बढ़ने से रोकता है। मन, वचन एवं शरीर, इन तीनों योगों को रोकना संवर है और इन्हें खुला छोड़ना आश्रव । आश्रव पापकर्मों के आने का मार्ग है। संवर तत्त्व के सत्तावन भेद हैं और इनमें से आप परिषहों के बारे में कई दिनों से जानकारी कर रहे हैं । सोलह परिषह आपके सामने आ चुके हैं और आज सत्रहवें परिषह की बारी है। बाईस परिषहों में से सत्रहवाँ परिषह है-'तृणपरिषह' । इस विषय में श्री उत्तराध्ययन सूत्र की एक गाथा है जो इस शास्त्र के दूसरे अध्याय में चौतीसवीं है । गाथा इस प्रकार है अचेलगस्स लहस्स, संजयस्स तवस्सिणो। तणेसु सयमाणस्स, हुज्जा गाय-विराहणा ॥ अर्थात् वस्त्ररहित और रूक्ष वृत्ति वाले तपस्वी साधु के तृणों पर शयन करने से शरीर में पीड़ा होती है । चेल यानि वस्त्र और अचेल अर्थात् वस्त्रों का पूर्णतया अभाव । हम इसका अर्थ मर्यादित कपड़ों से भी ले सकते हैं । यह इस प्रकार है जैसे -एक व्यापारी के पास किसी प्रकार का माल होता है । उसे वह बेचना चाहता है, किन्तु भाव और बढ़ जाएगा इस लालच में पड़कर वह उसे रखे रहता है। किन्तु दुर्भाग्यवश भाव गिरता चला जाता है और उस गिरे हुए भाव में जब वह माल बेचता है तो मुनाफा बहुत ही कम होता है। पर उस समय अगर कोई व्यक्ति व्यापारी से पूछता है-"भाई, नफा हुआ या नुकसान ?" व्यापारी कहता है-'नुकसान नहीं हुआ किन्तु फायदा भी नहीं रहा । केवल सौ-दो सौ रुपए मिले हैं।" तो हजारों रुपये के व्यापार में जिस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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