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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
आगे कहा हैगिलाणस्स अगिलाए वेयावच्च करणाए
अन्भुट्ट्यव्वं भवई । अर्थात् रोगी की सेवा करने के लिए सदा अम्लान भाव से तैयार रहना चाहिए।
वस्तुत: 'सेवा परमोधर्म' जो कहा जाता है, वह यथार्थ है । इस नश्वर शरीर से जो व्यक्ति औरों की सेवा करता है वही मानव-शरीर का सच्चा लाभ उठाता है। सच भी है, इस शरीर को तो एक दिन मिट्टी में मिलना ही है, फिर क्यों न इससे अधिक लाभ उठाया जाय ? मनुष्य जीवन को सफल बनाने के यही तो साधन हैं। अन्यथा अपना पेट तो पशु भी भर लेता है। मनुष्य भी अगर पेट भरने के काम में ही लगा रहा तो उसमें और पशु में क्या अन्तर रहेगा ?
आज लोग जीवन की सफलता धन इकट्ठा करने में, मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करने में तथा भोगोपभोगों को भोगने में ही समझते हैं। उनकी दृष्टि में शारीरिक सुख ही जीवन साफल्य का लक्षण है । पर शरीर को अधिक से अधिक सुख पहुँचाना ही जीवन की सफलता नहीं है। मैंने अभी आपको बताया था कि इस शरीर को स्वस्थ रखने का कितना भी प्रयत्न किया जाय, इसे कितना भी सजाया जाय पर एक दिन जब यह नष्ट होगा, किसी के भी काम नहीं आएगा । कहते भी हैं
गाय भैस पशुओं की चमड़ी, आती सौ-सौ काम, हाथी दांत तथा कस्तूरी, बिकती मंहगे दाम ।
नरतन किन्तु निपट निस्सार । इसीलिये ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि व्यक्ति को अपनी दृष्टि में शरीर की मुख्यता नहीं माननी चाहिये, अपितु शरीर में रहने वाली आत्मा को मुख्यता देकर उसके भले का प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर । शरीर के सुख-दुख तो इसके साथ ही समाप्त हो जाते हैं, किन्तु आत्मा के सुख-दुख अनेकानेक जन्मों तक उसके साथ रहते हैं। अर्थात् मनुष्य अगर पुण्य-कर्मों का बन्धन करता है तो परलोक में सुख हासिल होता है और पाप कर्मों का बन्धन करने पर जन्म-जन्म तक आत्मा कष्टों से घिरी रहती है। अत: मुमुक्षु प्राणी को अपने शरीर के द्वारा सेवा, सहानुभूति, तप, त्याग, समाज का उत्थान, आदि-आदि उत्तम कार्यों को करके अपना जीवन सफल बनाना चाहिये । इसी में शरीर की सार्थकता है ।
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