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________________ यह चाम चमार के काम को नाहि २०५ कहा - " यह चूना इसी व्यक्ति को खिला दो और न खाये तो तुरन्त गर्दन उड़ा दो ।" कर्मचारी ने चूना खा लिया। वह केवल चूना तो था ही नहीं, मक्खन था । चूना तो बहुत कम अंश में उसमें मिला था । चूना खिलाकर उसे महल से बाहर निकाल दिया गया कि महल ही में वह मर न जाए । बेचारा कर्मचारी " जान बची लाखों पाए” यह कहावत मन ही मन सोचता हुआ अपने घर की ओर भागा। घर जाकर उसने मंत्री अभयकुमार को मन ही मन लाखों बार प्रणाम किया और कहा - " मेरे जीवनदाता मित्र ! मैं तो तुम्हें रोज केवल नमस्कार ही करता था पर तुमने तो उसके बदले मेरी जान बचा दी, अन्यथा आज बेमौत मारा जाता ।" तो बन्धुओ, संकट के समय मित्र बहुत काम आता है । अतः किसी भी स्थिति में मित्र को भुलाना नहीं चाहिये । चाहे व्यक्ति दरिद्रावस्था में हो या अमीरावस्था में, अपनी प्रतिकूल स्थिति में अगर वह मित्र की सलाह लेगा या उससे सहायता की आकांक्षा करेगा तो मित्र सच्चे हृदय से उसे मार्ग सुझाएगा । मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि आप लोग चाहे अमीर हों या गरीब, भले ही किसी के पास धन अधिक हो और किसी के पास कम पर आप लोग आपस में संगठित होकर मैत्रीभाव की स्थापना करें । आपस में स्नेह होने पर और संगठन होने पर ही आप समाज की कुप्रथाओं को दूर कर सकते हैं, धर्म एवं सम्प्रदाय आदि को लेकर जो आपसी झगड़े खड़े हो गये हैं उन्हें मिटा सकते हैं, अपने बालक-बालिकाओं के लिये धार्मिक स्कूलादि का प्रबन्ध करके उनमें सुन्दर संस्कार एवं धार्मिक भावनाओं के अंकुर उगा सकते हैं तथा सबसे बड़ी बात जो हो सकती है वह यह कि समाज में रहने वाले अभावग्रस्त, दीन-दरिद्र एवं पीड़ितों के दुखों को मिटा सकते हैं । समाज में अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनकी सार-संभाल करने वाला और सेवा करने वाला ही कोई नहीं होता । ऐसे व्यक्ति अत्यन्त दुःख और कष्ट में अपना जीवन बिताते हैं । अगर आप लोग मिल कर कुछ प्रबन्ध करें तो ऐसे व्यक्ति भी कुछ शांति और सुविधा से अपना समय व्यतीत कर सकते हैं । बन्धुओ, यह सेवाकार्य भी सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, उपवास एवं अन्य विविध प्रकार के तपों से कम नहीं है अपितु यह उत्कृष्ट धर्माराधन करना है । श्री स्थानांग सूत्र में कहा भी है असंगिहीय परिजणस्स - संगिण्हणयाए अब्भुट्ठेयव्वं भवइ । अनाश्रित एवं असहायजनों को सहयोग एवं आश्रय देने के लिये सदा तत्पर रहना चाहिये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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