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अचेलक धर्म का मर्म
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मित्रों की खातिर की तो क्या और इस देह से पृथ्वी पर एक कल्प तक भी जीवित रहे तो क्या ?
इतना ही नहीं, आगे कहते हैं-अगर चिथड़ों से बनी हुई गुदड़ी ओढ़ी तो क्या ? और निर्मल सफेद वस्त्र पहने या पीताम्बर पहने तो क्या ? अगर एक ही स्त्री रही तो क्या ? और अनेकानेक हाथी एवं अश्वों सहित अनेक स्त्रियाँ रहीं तो भी क्या ? अगर नाना प्रकार के सरस सुस्वादु भोज्य-पदार्थ खाये तो क्या एवं रूखासूखा खाना खाया तो क्या ? इस प्रकार संसार का महान वैभव पा लिया और सुखसुविधाओं के समस्त साधन प्राप्त कर लिये तो क्या हुआ । यदि आत्मा को संसारबन्धनों से मुक्त करने वाली आत्म-ज्ञान की ज्योति न जागी तो समझना चाहिए कि मनुष्य ने कुछ भी नहीं पाया और कुछ भी नहीं किया।
सन्तों की इन भावनाओं में कितना गम्भीर रहस्य छिपा हुआ है ? अगर मानव इन पर चिन्तन करे तो क्या अपनी आत्मा को अपने शुद्ध रूप में लाकर कर्मों की सर्वथा निर्जरा करता हुआ संसार-मुक्त नहीं हो सकता ? अवश्य हो सकता है । आवश्यकता केवल आत्म-ज्ञान को जगाने की है ।
जब आत्म-ज्ञान जाग जाता है तो संसार का सम्पूर्ण सुख एवं सम्पूर्ण वैभव व्यक्ति को निरर्थक महसूस होने लगता है । उसे स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि संसार का कोई भी पदार्थ उसे शाश्वत सुख प्रदान नहीं कर सकता और कोई भी प्राणी उसे मृत्यु से परित्राण नहीं दिला सकता। इसीलिए अनाथी मुनि जो कि एक श्रेष्ठि-पुत्र थे तथा अपार वैभव के बीच पले थे, सब कुछ त्याग कर साधु बन गये थे।
___ एक बार जब मगध देश के सम्राट राजा श्रेणिक 'मण्डिकुक्षि' नामक उद्यान में घूमते हुए पहुँचे तो उन्होंने एक वृक्ष के नीचे मुनि को देखा । उन्हें देखकर श्रेणिक अत्यन्त चकित हुए, क्योंकि मुनि का रूप अत्यन्त उत्कृष्ट एवं आकृति बड़ी ही भव्य तथा मनोहारिणी थी। शारीरिक सौन्दर्य एवं उनके आकर्षक व्यक्तित्व से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि मुनि किसी उच्च कुल के तथा समृद्धिशाली परिवार के व्यक्ति हैं । पर ऐसे कुलीन, सम्पन्न तथा शारीरिक सौन्दर्य के धनी व्यक्ति को युवावस्था में ही संन्यासी बना हुआ देखकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा
तरुणोसि अज्जो पव्वइओ, भोगकालम्मि संजया । उवढिओ सि सामण्णे, एयमलु सुणेमि ता॥
-उत्तराध्ययन सूत्र २०-८ श्रेणिक ने प्रश्न किया-"भगवन् ! आप भोगों के योग्य इस युवावस्था में
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