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________________ यह चाम चमार के काम को नाहि २०३ घनिष्ठ मित्र थे। पर सुदामा जीवन में अत्यन्त दरिद्र बने रहे और कृष्ण राजकुमार थे अतः द्वारिका के राजा बने । किन्तु क्या वे अपने गरीब मित्र को भूले ? नहीं, जब सुदामा पत्नी के अत्यधिक आग्रह के कारण कृष्ण के यहाँ गये तो उन्होंने किस प्रकार विह्वल और दुखी होकर सुदामा से कहा ऐसे बेहाल बिबाहन सों पगकंटक जाल लगे पुनि जोए। हाय महादुख पायो सखा तुम आए इतै न कितै दिन खोए । देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करिके करुणानिधि रोए । पानी परात को हाथ छुयो नहि, नैनन के जल सों पग धोए ॥ कैसी आदर्श मित्रता थी कृष्ण की ? वे अपने दरिद्र मित्र के पैरों में फटी हुई बिबाइयों को तथा जगह-जगह लगे हुए काँटों के द्वारा क्षत-विक्षत हुए पाँवों को देखकर रो पड़े और बोले-"मित्र ! तुमने कितना दुःख उठाया है ? पर ऐसा ही था तो तुम अब से पहले ही यहाँ क्यों नहीं आ गये? क्यों ऐसी दरिद्रता में महान् कष्ट पूर्वक दिन बिताते रहे ?" बन्धुओ, इतिहास कहता है कि अपने परमप्रिय मित्र की हालत देखकर तीन खंड के स्वामी कृष्ण की आँखों से अश्र-धारा बह चली और उनके द्वारा सुदामा के चरण धुल गये । समीप रखी हुई परात से पानी लेने की भी आवश्यकता उन्हें नहीं पड़ी । आशय यही है कि मित्र की हालत देखकर कृष्ण का हृदय अत्यन्त व्यथित और दुखी हो गया। अपने मित्र को कृष्ण भले नहीं और उनके आने पर यह भी विचार नहीं किया कि मैं राजा हूँ और मेरे इस दरिद्र मित्र को देखकर लोग क्या सोचेंगे? आज तो थोड़ी-सी सम्पत्ति बढ़ते ही अपने निर्धन मित्रों को तो क्या, परिजनों और रिश्तेदारों को देखकर भी लोग मुंह फेर लेते हैं। उनसे बात करने में या उनको अपने घर बुलाने में शर्मिन्दगी महसूस करते हैं । पर ऐसा होना नहीं चाहिये । जिस मनुष्य में मनुष्यता होती है वह अपने मित्र से जीवन पर्यन्त मित्रता रखता है, और फिर इस संसार में तो न जाने कैसेकैसे लोग मिलते हैं कि कभी-कभी जिसे हम उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं या अधिक सम्बन्ध उससे नहीं रखते वह भी हमारे किसी भारी संकट में सहायक बन जाता है। मित्र सद्बुद्धि देता है तथा सन्मार्ग पर भी ले आता है अगर किसी समय हम भटक जाएँ अथवा हमारी बुद्धि काम न करे तो। एक उदाहरण है जिसे सम्भव है आपने कभी सुना होगा। मित्र की कृपा मगध के सम्राट राजा श्रेणिक जिस समय अपने राज्य-काल में थे, उनके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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