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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
अखंड घड़े पर अचानक एक ठीकरी गिरकर उसे खंड-खंड कर देती है, इसी प्रकार शत्रु भी अचानक आक्रमण करके राज को विध्वंस कर देता है । जब हम इतिहास उठाकर देखते हैं तो ऐसे अनेक उदाहरण हमें पढ़ने को मिलते हैं कि सुख-समृद्धि एवं अमन-चैन से परिपूर्ण राज्य भी गद्दारों के देशद्रोह से नष्ट कर दिये गये हैं । किसी राज्यद्रोही ने गद्दारी करके चुपचाप किले का दरवाजा खोल दिया था या किसी ने शत्रु से मिलकर सारा गुप्त भेद उसे बताया था। वे शत्रु ही कहलाते थे। इसके अलावा अगर राज्य में कोई गद्दार नहीं होता था तो दुश्मन भी अंधेरी रातों में अथवा वर्षाकाल का लाभ उठाकर अचानक आक्रमण कर देता था और उससे लोहा लेना कठिन हो जाता था। महाराज शिवाजी मरहठों को साथ लेकर इसी प्रकार मुसलमान बादशाह औरंगजेब को परेशान किया करते थे।
कहने का अभिप्राय यही है कि शत्रु की ओर से व्यक्ति को कभी असावधान नहीं रहना चाहिए । शत्रु शरीर के भी होते हैं और आत्मा के भी । आत्मा के शत्रु क्रोध, मान, माया, लोभ एवं राग-द्वेषादि हैं। ये भी कब और किस प्रकार मन में प्रवेश करके आत्म-गुणों पर आक्रमण करते हैं, यह व्यक्ति नहीं जान पाता अत. इनसे सावधानी रखने की भी बड़ी आवश्यकता है। यह इसलिए कि बाह्य शत्र तो धन को, जन को या शरीर को क्षति पहुँचाते हैं जो कि एक दिन स्वयं ही छ टने वाले हैं । किन्तु आत्मा के शत्रु जोकि कषायादि हैं वे तो अनेक जन्मों तक भी आत्मा को कष्ट पहुंचाते रहते हैं, इसलिए इनसे सतर्क रहने की साधक को अनिवार्य आवश्यकता है।
कषायों की शत्रुता आत्मा को कितना पीड़ित करती है। यह इस प्रकार बताया गया है
अहे वयइ कोहेणं, माणेण अहमा गइ। माया गइपडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं ॥
- उत्तराध्ययन सूत्र ६-५४ अर्थात् क्रोधी आत्मा नीचे गिरती है, मान से अधम गति को प्राप्त होती है । माया से सद्गति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है तथा लोभ से इस लोक और परलोक दोनों में ही भय एवं कष्ट बना रहता है।
इस प्रकार शत्रु चाहे बाह्य हो चाहे आन्तरिक, दोनों ही कष्ट पहुंचाते हैं, अतः इनसे हमेशा सावधान और सतर्क रहना चाहिये ।
दोहे में तीसरी वात कही गई है मित्र को न भूलने की । यह बात भी यथार्थ है। व्यक्ति को दौलत के गर्व में आकर अपने मित्र को कभी नहीं भूलना चाहिये और न ही उसकी उपेक्षा करनी चाहिये । श्रीकृष्ण और सुदामा दोनों बाल्यकाल में
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