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कहो क्यारे पछी तरशो?
दे आधी की आधि अरध की कोर रे।
___ अन्न सरीखा पुन्न नहीं कोई और रे। कवि का कथन है कि अन्न के समान दूसरा दान या पुण्य का कारण और कोई नहीं है। हमारे धर्मग्रन्थ दान के चार प्रकार बताते हैं—(१) औषध दान, (२) शास्त्र दान, (३) अभय दान और (४) आहार दान ।।
यद्यपि ये चारों ही दान श्रेष्ठ हैं और आत्मा के कल्याणकारी हैं। किन्तु तनिक ध्यान से समझने की बात यह है कि इनमें से आहार-दान को अधिक महत्वपूर्ण क्यों बताया गया है ?
इसका कारण यही है कि ऊँची से ऊँची और कष्टकर साधना करने वाले को भी शरीर चलाने के लिए सर्वप्रथम आहार ग्रहण करना पड़ता है । आप यह मनोरंजक पर सत्य उक्ति प्रायः सुनते भी हैं—'भूखे भजन न होहि गोपाला ।'
यानी भगवान की भक्ति भी खाली पेट नहीं हो सकती । पहले पेट-पूजा फिर और काम दूजा।
पहले भोजन, पश्चात् भक्ति कहा जाता है कि भगवान बुद्ध के शिष्य एक बार कहीं जा रहे थे। उन्होंने मार्ग में एक व्यक्ति को पड़ा हुआ देखा। बुद्ध के शिष्यों ने सोचा-'चलो इसे ही अपने धर्म का मर्म समझाएँ ।' यह विचार कर उन्होंने लेटे हुए व्यक्ति के पास बैठकर धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया। किन्तु उस व्यक्ति ने उपदेश-श्रवण में तनिक भी रुचि नहीं दिखाई और करवट बदल कर मुँह फेर लिया।
यह देखकर शिष्य अपने विहार में आ गये और बुद्ध से बोले- "भगवन् ! आज हमने एक अजीब व्यक्ति देखा। वह व्यक्ति सड़क के एक किनारे आराम से लेटा हुआ है । कोई काम उसके पास है नहीं, फिर भी उसने हमारी धर्म-सम्बन्धी कोई बात नहीं सुनी, उलटे मुंह फेर कर पड़ गया।"
बुद्ध ने शिष्यों की बात सुनी और कुछ क्षण उस पर विचार किया । तत्पश्चात् वे अपनी झोली में कुछ आहार और पात्र में जल लेकर शिष्यों के साथ उस स्थान पर आये जहाँ वह व्यक्ति लेटा हुआ था । बड़े मधुर स्वर से बुद्ध बोले
"वत्स ! तुम भूखे हो, यह लो थोड़ा आहार करो और जल पियो।" ।
बुद्ध के वचन सुनकर व्यक्ति उठा, उसने पेट भर खाना खाया और जल पीकर तृप्ति की सांस ली। उसके बाद स्वयं उसने आग्रह करके बुद्ध से कुछ उपदेश देने की प्रार्थना की और उपदेश सुनकर बुद्ध के साथ ही प्रव्रज्या लेने का निश्चय कर चल पड़ा।
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