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आनन्द प्रवचन | छठा भाग बन्धुओ, इस उदाहरण से आप समझ गये होंगे कि मनुष्य को सर्वप्रथम किस दान की अपेक्षा होती है ? जब तक पेट खाली रहता है, वह ज्ञान आदि किसी अन्य दान से सन्तुष्ट नहीं हो सकता। इसीलिए कवि बाजिंद ने अन्नदान को सबसे बड़ा पुण्य कार्य माना है।
गुजराती कविता में भी धन होने पर उसे जरूरतमंद लोगों को देकर परोपकार करने की और इस प्रकार पुण्योपार्जन करने की प्रेरणा दी है । आगे कहा है
धरो छो ध्यान मायानं, करो छो काम काया ।
प्रभुने नथी ध्यानमां धरता, कहो क्यारे पछी तरशो ? कवि कह रहा है- "संसारी प्राणियो ! तुम रात-दिन पैसे की चिन्ता में पड़े रहते हो कि किस प्रकार इसे अधिक से अधिक इकट्ठा कर सकें। यहाँ तक कि स्वप्न में भी माल खरीदना, बेचना और जमा-खर्च का हिसाब रखना ही तुम्हें दिखाई देता है । और इससे समय बचता है तो अपने शरीर को सजाने-सँवारने और पुष्ट करने की कोशिश में लगे रहते हो । तुम भूल जाते हो कि यह शरीर तो एक दिन नष्ट होकर खाक में मिलने वाला है, चाहे कितने ही पौष्टिक पदार्थ इसे क्यों न खिलाओ और इत्र-फुलेल आदि लगाकर क्षणिक समय के लिए सुगन्धित बना लो, अन्त में इसका नाश होगा और इसके द्वारा जिस महान् उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है वह कभी न हो सकेगी।
वस्तुतः मानव-जन्म केवल क्षण-भंगुर भौतिक सम्पदा को बटोरने के लिए प्राप्त नहीं हुआ है और न ही इस नाशवान शरीर को क्षणिक सुख पहुँचाने के लिए। अपितु यह जन्म आत्म-कल्याण करने के लिए मिला है और शरीर आत्म-साधना का माध्यम है। इसके द्वारा ही जप, तप, ध्यान, साधना एवं ईश-भक्ति की जा सकती है। किन्तु तुम ईश्वर का ध्यान नहीं करते तो फिर बताओ कौन-से जन्म में यह करोगे?
हिन्दी के एक कवि ने भी जीवन का महत्त्व बताते हुए अपनी कविता में कहा है
जिन्दगी है प्यार की, जिंदगी है धर्म को, धर्म के ही काम में कदम बढ़ाए जा ।
शीश चढ़ाये जा। जिन्दगी एक नाव है, तिरने का दाव है, वक्त लाजवाब है, व्यर्थ न गंवाये जा।
जिन गुण गाये जा।
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