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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
वस्तुतः निन्यानवे के चक्कर में फंसे रहने वाले प्राणी दान के महत्व को नहीं समझ पाते । वे नहीं जानते कि सुपात्र को दिया हुआ दान अनन्तगुना अधिक होकर पुण्य के रूप में पुनः प्राप्त हो जाता है—“पात्रेऽनंतगुणं भवेत् ।"
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी इसी बात को समझाते हुए एक अनुपम कल्पनाचित्र खींचा है। उसमें कहा है
"मैं गाँव में घर-घर भीख मांगने के लिए निकला हुआ था। उसी समय तेरा स्वर्ण-रथ मुझे दूर से दिखाई दिया। मैं ताज्जुब करता हुआ विचार करने लगा कि यह कोई सम्राटों के भी सम्राट हैं और आज इनके द्वारा मेरे दुर्दिनों का अन्त होने वाला है।
मैं चुपचाप अयाचित दान प्राप्त करने की प्रतीक्षा में खड़ा रहा और तेरा रथ मेरे पास आकर रुक गया । तेरी नजर मुझ पर पड़ी और तू मुस्कुराता हुआ रथ से उतरा। मैं साँस रोके हुए अपने सौभाग्य सूर्य के उदय होने की प्रतीक्षा कर रहा था । किन्तु महान आश्चर्य के साथ मैंने देखा कि तूने अपना दाहिना हाथ मेरे आगे फैलाकर कहा- "लाओ मुझे क्या दोगे ?"
मैं भिखारी इसे मजाक समझा और उलझन में पड़ गया। किन्तु फिर धीरे से मैंने अपनी झोली में हाथ डाला और अन्न का केवल एक दाना निकालकर तेरे हाथ पर रख दिया । तू उसे लेकर पुनः मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ गया।
__ किन्तु शाम होने पर जब मैंने अपनी झोली को उलटा किया तो भिक्षा के अन्य दानों के साथ स्वर्ण का एक दाना भी पृथ्वी पर गिरा तब मैं अपने दिये हुए अन्न के एक दाने के दान का महत्व समझ गया और पश्चात्ताप पूर्वक जोर-जोर से रोते हुए सोचने लगा- “काश ! मैंने अपना सर्वस्व ही तुझे दे दिया होता।"
बन्धुओ, टैगोर की यह कल्पना सत्य है । व्यक्ति का निःस्वार्थ भाव से दिया हुआ दान कभी निरर्थक नहीं जाता, अपितु अनेक गुना बढ़कर लौट आता है । द्वार पर आया हुआ प्रत्येक याचक उसी परम पिता परमात्मा का अंश है जिसकी हम उपासना और भक्ति करते हैं। इसलिए किसी को भी निराश करना स्वयं परमात्मा की उपेक्षा करना है । आप लोगों के पास तो यद्यपि आवश्यकता से अधिक धन है, किन्तु जिनके पास वह प्रचुर मात्रा में नहीं होता वे भी आपसे बढ़कर दानी साबित होते हैं, क्योंकि वे अपने पास रहे हुए थोड़े में से भी थोड़ा दूसरों को बिना दानदाता कहलवाने की और बिना ख्याति प्राप्ति की इच्छा से देते हैं । सन्त कवि बाजिंद का कहना है
भूखो दुर्बल देख नाहिं मुख मोड़िये । जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िये ।
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