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________________ कहो क्यारे पछी तरशो ? उपयोग नहीं करते, यानी इनके द्वारा सत्कार्य करके पुनः पुण्य-रूपी पूंजी इकट्ठी नहीं करते तो फिर कब यह कार्य करोगे ?" "यह मत भूलो कि इस जन्म के साथ जो ये समस्त अनुकूल, उत्तम और आत्महित में सहयोगी बनने वाले साधन मिले हैं, इन्हें प्राप्त करने में तुम पूर्वकृत समस्त पुण्य खर्च कर चुके हो और अब पुनः उसका संचय किये बिना मनुष्य जन्म मिलना असंभव है । अतः इस शरीर के द्वारा सेवा, परोपकार, त्याग, तप एवं दानादि सत्कार्य कर लो और इस जन्म में ही ईश्वर की भक्ति, चिंतन, मनन एवं ध्यान आदि के द्वारा अपनी आत्मा के स्वरूप को पहचान लो। अन्यथा आयु समाप्त हो जायेगी और तुम्हारे हाथ कुछ भी नहीं आयेगा।" ____संत दीन दरवेश ने भी एक स्थान पर मनुष्य को उद्बोधन देते हुए आत्महितकारी चेतावनी दी है बन्दा कर ले बन्दगी, पाया नर तन सार, जो अब गाफिल रह गया, आयु बहै झखमार । आयु बहै झखमार, कृत्य नहिं नेक बनायो, पाजी बेईमान कौन विधि जग में आयो । कहत दीन दरवेश फस्यो माया के फन्दा, पाया नर तन सार बन्दगी कर ले बन्दा । अपनी कुन्डलिया में दरवेश कहते हैं- "अरे बन्दे ! तूने नर-तन पाया है तो खुदा की बन्दगी भी तो कर । अगर अभी भी गाफिल ही रह गया तो यह आयु पानी के प्रवाह के समान बहती चली जाएगी। अफसोस की बात है कि इस अमूल्य जीवन को पाकर भी तूने कोई नेक कृत्य नहीं किया और माया के फन्दे में पड़ा हुआ बेईमानी और अनैतिकता से पाप-कर्मों को इकट्ठा करता रह गया। मैं अभी भी तुझे यही कहता हूँ कि तू सम्हल और नर-तन का सार निकाल ले।" गुजराती काव्य में भी आगे दिया गया है मल्ये नहीं आपता नाणूं, तरवानू आखरू ताणू, छताये तू नथी तरतो, कहो क्यारे पछी तरशो ? कवि का कहना है कि-"संसार-सागर पार करने के लिए तू व्रत-नियम ग्रहण नहीं करता, त्याग-तपस्या नहीं अपनाता और चिंतन, मनन, ध्यान, स्वाध्याय तथा ईश-भक्ति आदि भी नहीं कर सकता तो अन्तिम उपाय दान को तो कम से कम काम में ले । तेरी आवश्यकता से बहुत अधिक धन तुझे मिला हुआ है पर उसे देने में भी इतनी संकीर्णता क्यों ? दान के द्वारा परोपकार करके भी तू भव-समुद्र को काफी मात्रा में तैर कर पार कर सकता है पर वह भी तुझ से नहीं होता तो फिर बता कैसे और कब तू तिरेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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