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________________ १९४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग चला और सोचने लगा- "इतना धन मेरे पास जीवन भर खाने के लिए बहुत है । राजा को तो मैं पुनः लौटाऊँगा नहीं, और मर जाऊँगा तो मेरे कौन से लड़के-बाले हैं जिनसे वह वसूल करेगा। यानी इतना धन तो मैं जीवन भर में भी कमा नहीं सकता था, जितना राजा ने दे दिया है । अब न तो मुझे कमाने की झंझट करनी पड़ेगी और न लौटाने की ही फिक्र रहेगी।" यह विचार करता हुआ व्यापारी अपने गाँव को लौटा । किन्तु बहुत धन पास में होने के कारण चोर-डाकुओं के भय से वह मार्ग में रहने वाले एक तेली के यहाँ गत्रि-विश्राम के लिए ठहर गया। तेली के यहाँ दो बैल थे जिन्हें वह बारी-बारी से घानी चलाने के लिए जोता करता था । व्यापारी तेली के यहाँ उसी स्थान पर सोया था जहाँ दोनों बैल बँधे हुए थे । बैल आपस में बातें कर रहे थे, और व्यापारी पशुओं की भाषा समझता था अतः कान देकर सुनने लगा। दोनों बैलों में से पहला बैल कह रहा था "भाई ! मुझ पर अपने मालिक इस तेली का पिछले जन्म का बड़ा कर्ज था किन्तु वर्षों इसकी सेवा करने पर अब वह कर्ज चुक गया है और प्रातःकाल होते-होते मैं उस कर्ज से मुक्त होकर इस योनि से छूट जाऊँगा।" पहले बैल की बात सुनकर दूसरा बोला "मेरा भी यही हाल है। मैं भी मालिक का कर्जा चुका रहा हूँ किन्तु अभी एक हजार का मुझ पर कर्ज बाकी है । पर अगर अपना मालिक कल राजा के बैल के साथ एक हजार रुपये की शर्त पर मेरी दौड़ रख दे तो मैं जीत जाऊँगा और मालिक को एक हजार रुपया मिल जाने पर मैं भी कर्ज से मुक्त होकर यह पशुयोनि त्याग दूंगा।" व्यापारी बैलों की यह बात सुनकर दंग रह गया पर उसने प्रातःकाल बैलों के कथन की सत्यता जानने का निश्चय किया। रात्रि को मन की हलचल के कारण उसे ठीक तरह से निद्रा भी नहीं आई। किन्तु पौ फटते-फटते उसने आँख खोलकर बैलों की ओर देखा तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गई। वास्तव में ही एक बैल मरा पड़ा था। यह देखकर उसने तेली को दोनों बैलों में रात्रि को होने वाली बातचीत सुना दी और कहा-"विश्वास न हो तो आज इस दूसरे बैल की राजा के बैल के साथ दौड़ करवा दो।" तेली व्यापारी की बात सुनकर चकित तो था ही। अतः यथार्थता जानने के लिए नगर की ओर चल पड़ा। व्यापारी भी साथ ही गया क्योंकि उसे भी सत्य को जानना था । जब दोनों पुनः नगर में पहुँचे तो देखा कि बाहर मैदान में बैलों की दौड़ का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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