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________________ यह चाम चमार के काम को नाहि १६३ ले दर्पन मुख देखत है औ ___ अति आनन्द से निरखत छाहि । तुलसीदास भजो हरि नामा, यह चाम चमार के काम को नाहि ॥ सन्त ने इस शरीर का तिरस्कार करते हुए मनुष्य को चेतावनी दी है"भोले प्राणियो ! अपने शरीर का सौन्दर्य निखारने के लिये तुम तेल-फुलेल अर्थात् सुगन्धित इत्र आदि लगाते हो तथा कीमती और सुन्दर वस्त्र पहनकर अपनी बांहों को गर्व से चढ़ाते हो । हाथ में दर्पण लेकर घण्टों बड़े हर्ष से अपने सुन्दर चेहरे की छवि निरखते हो तथा अपने चारों और बिखरी हुई भोग-सामग्री तथा सुन्दर पत्नी को देखकर फूले नहीं समाते हो । किन्तु यही शरीर प्राणों के निकल जाने के पश्चात् चमार के उपयोग में भी नहीं आता यानी मनुष्य के शरीर की चमड़ी से तो वह भी कोई वस्तु नहीं बनाता। इसलिए इस निरर्थक देह की ममता छोड़कर इसके द्वारा भगवान का भजन क्यों नहीं करते हो? ईश-नाम लेने पर कम से कम आत्मा का तो आगे चलकर कुछ भला हो सकेगा । नहीं तो कितना भी इस देह को बना-संवारकर रखो, अन्त में यह आग में ही फूंकने के काम आयेगा और कोई भी लाभ इससे नहीं है।" बन्धुओ ! कहने का आशय यही है कि अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिये मनुष्य सदा प्रयत्न करता है, जो कि नश्वर है और एक दिन मिट्टी में मिलने वाला है। किन्तु इसके द्वारा सेवा, साधना या धर्माराधना करके अपनी आत्मा को कर्मों के कर्जे से मुक्त करना नहीं चाहता । वह भूल जाता है कि यह शरीर अनेक पुण्य कर्मों के योग से मिला है और अब इसके द्वारा चाहे तो वह संसार-परिभ्रमण बढ़ा सकता है और चाहे तो संसार को समाप्त भी कर सकता है। अर्थात् संसार-मुक्त हो सकता है। कर्मों का कर्ज आप जानते हैं कि कोई व्यक्ति अगर धन-पैसे के रूप में किसी से कर्ज लेता है तो अपने को दिवालिया साबित करके या दीनता का प्रदर्शन करके इसी जन्म में उस कर्ज से मुक्त भी हो सकता है। किन्तु कर्मों का ऋण ऐसा जबर्दस्त होता है कि वह न दिवालिया होकर चुकाया जा सकता है और न ही उसके लिए किसी प्रकार की दीनता, हीनता या प्रार्थना ही काम आती है। कर्म रूपी कर्ज से तो व्यक्ति जन्मजन्मान्तर तक भोगने पर ही छुटकारा पा सकता है । इस सम्बन्ध में एक रूपक है एक व्यापारी को व्यापार में बड़ा जबर्दस्त घाटा लगा। घाटा लगने पर वह देश के राजा के पास गया और उससे ऋण के रूप में धन माँगा। ___व्यापारी प्रतिष्ठित था अतः राजा ने उसे ऋण के तौर पर बहुत-सा धन दे दिया । व्यापारी के मन में खोट थी अतः वह धन लेकर हर्षित होता हुआ वहाँ से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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