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| यह चाम चमार के काम को नाहिं
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो।
कल मैंने आपको बताया था कि समाज भी हमारे शरीर के समान ही शरीर है। हमारे शरीर में अनेक अंग और उपांग हैं। तथा समाज-रूपी शरीर में उसके सदस्य अंग एवं उपांगों के स्थान पर हैं। आप जानते हैं कि हमारा शरीर तभी स्वस्थ रहता है जबकि उसके किसी भी अंग में पीड़ा न हो, कोई भी अंग विकृत न हो तथा कोई असुन्दर भी न हो।
इसी प्रकार समाज-रूपी शरीर का भी हाल है। यह तभी स्वस्थ रह सकता है जबकि इसके अंग रूपी सभी सदस्य खुशहाल हों, किसी को भी कोई कष्ट, चिन्ता अथवा अशान्ति न हो तथा सभी में सद्गुणों का सौन्दर्य हो। किन्तु यह किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? तभी जबकि सब इसके लिए संगठित होकर प्रयत्नशील बनें । पर ऐसा होता कहाँ है ? आज प्रत्येक व्यक्ति अपनी इस नश्वर देह को स्वस्थ रखने के लिए तो नाना प्रयत्न करता है । तनिक पेट में दर्द हो जाय या शरीर गरम हो जाय तो तुरन्त डा० को बुलाकर दिखाता है और अनेक औषधियों का सेवन प्रारम्भ कर देता है । इसी प्रकार शरीर की सुन्दरता बनाए रखने के लिए भी विविध प्रकार के वस्त्राभूषण पहनता है तथा इत्र व सुगन्धित तेल लगाकर बालों की और चेहरे की शोभा बढ़ाने का प्रयत्न करता है, किन्तु सब कुछ करने पर भी इसका अन्त कैसा होता है, और यह किसके काम आता है ? किसी के भी नहीं। गाय, भैंस और अन्य जानवरों का चमड़ा तो फिर भी अनेक कामों में लिया जाता है पर मनुष्य की चमड़ी किसी के काम नहीं आती। सन्त तुलसीदास जी ने इसीलिये कहा है
तेल फुलेल अनेक लगावत,
खींच के बन्द संवारत बाहिं । भोगन भोग अनेक करे,
तरुणी वरु देख अति हरषाहि ॥
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