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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
को साथ लेकर क्रियात्मक रूप से कुछ करो । तभी हो सकेगा । ऐसा होना चाहिए, कहने मात्र से कुछ नहीं होता । स्वयं करने से होता है । हमारा चातुर्मास कराने के के लिए अगर आप दिल ही में विचार करते रहते तो चातुर्मास कैसे होता ? इसके लिए आपने मिल-जुलकर दौड़-भाग की तो चातुर्मास के लिए हमें यहाँ ले आए य नहीं ? बस ऐसा ही प्रयत्न प्रत्येक कार्य के लिए होना चाहिए । जो कार्य आप करना चाहते हैं, उसके लिये अन्य व्यक्तियों को सहयोगी बनाकर आपको जी-जान से जुट जाना चाहिए ।
अन्य व्यक्तियों को सहयोगी बनाने का प्रयत्न करना ही संगठन है और संगठन होने पर हर कार्य संभव हो जाता है । 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता'-- यह कहावत आप अनेक बार सुनते हैं । इसका भावार्थ यही है कि एक व्यक्ति महान् कार्य को नहीं कर सकता, किन्तु बहुत से व्यक्ति मिलकर उसे सहज ही सम्पन्न कर लेते हैं ।
समाज-संगठन, समाज-सेवा एवं धर्म प्रचार में जो व्यक्ति रुचि लेते हैं तथा आन्तरिक उत्साहपूर्वक इन कार्यों को करते हैं वे मरकर भी अमर हो जाते हैं । अहमदनगर में श्री किशनदास जी मूथा और सतारा में श्री बालमुकुन्द जी मूथा सच्चे श्रावक एवं धर्मानुरागी व्यक्ति थे । इन्होंने अपने जीवन में बहुत समाज सेवा की तथा स्वयं भी धर्माराधन किया। मैंने स्वयं किशनदास जी से शास्त्रों का पठन किया था । उनके उपकार का मुझे सदा स्मरण रहता है । उपकार का बड़ा भारी महत्व है । कहा भी है
सहयोगदानमुपकारः, लौकिको लोकोत्तरश्च ।
इस गाथा में बताया गया है
कि किसी व्यक्ति को सहयोग देने को उपकार कहते हैं । यह दो प्रकार का होता है । एक लौकिक एवं दूसरा लोकोत्तर | किसी अभावग्रस्त व्यक्ति को अन्न, वस्त्र, धन एवं इसी प्रकार की अन्य वस्तुओं से सहायता करना लौकिक उपकार कहलाता है तथा धर्मोपदेश देकर व्यक्ति की आत्मा को निर्मल बनाने का प्रयत्न करना तथा निर्वद्य दान आदि देना लोकोत्तर उपकार कहा जाता है ।
- जैन सिद्धान्तदीपिका
तो मानव को जहाँ, जिस प्रकार की सहायता आवश्यक हो, वैसी ही प्रदान करते रहना चाहिए। कोई भी प्राणी किये हुए उपकार को कभी भूलता नहीं है तथा जीवन भर बड़ी श्रद्धा से स्मरण करता है ।
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उर्दू भाषा के शायर 'चकबस्त' ने तो यहाँ तक कहा है
जिसने कुछ अहसां किया, एक बोझ हम पर रख दिया । सिर से तिनका क्या उतारा, सर पे छप्पर रख दिया |
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