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समाज बनाम शरीर
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देवी को चोर की बात सुनकर कुछ झुंझलाहट हुई पर अपने आप पर जब्त करती हुई फिर बोली
"निकम्मे व्यक्ति ! तुझसे तो कुछ भी नहीं होता पर खैर यहीं बैठे-बैठे वे लोग जो तेरे पीछे आ रहे हैं, उनके आने पर अपनी आँखें निकालकर ही उन्हें डराना । बाकी मैं सम्हाल लूंगी।"
पर चोर फिर घबराकर बोल पड़ा-“देवी माता ! मैं तो यह भी नहीं कर सकूँगा । मेरी आँखें तो पथरा ही गई हैं।"
अब देवी अपने क्रोध को नहीं रोक सकी और कह बैठी—तू मेरे मन्दिर से निकल जा । तेरे जैसे पुरुषार्थहीन की मैं भी कोई सहायता नहीं करूंगी।"
वस्तुत: जो व्यक्ति पुरुषार्थ से रहित होता है, वह न तो स्वयं ही अपना भला कर पाता है और न ही कोई दूसरा उसकी सहायता करता है। किसी ने सत्य ही कहा है
"मन के लंगड़े को असंख्य देवता मिलकर भी नहीं उठा सकते ।"
किन्तु इसके विपरीत जो अपने मन को उत्साह, साहस और पुरुषार्थ से पूरित रखता है, वह अपने चरणों में देवताओं को भी झुका लेता है । पुरुषार्थी व्यक्ति के लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं है। आचार्य चाणक्य का कथन है
कोऽतिभारः समर्थानां, किं दूरं व्यवसायिनाम् ।
को विदेशः सुविद्यानां, कोऽप्रियः प्रियवादिनाम् ।। समर्थ एवं पुरुषार्थी व्यक्तियों के लिये कुछ भी अति भार नहीं है, व्यापारियों के लिये कोई भी स्थान दूर नहीं है, विद्वानों के लिये विदेश में कोई कठिनाई नहीं है और मधुर बोलने वालों के लिये कोई भी अप्रिय नहीं है।
तो मराठी कवि ने अपने पद्य में यही बताया है कि वे व्यक्ति जीवित होते हए भी मृतक के समान हैं जो पुरुषार्थ अथवा उद्यम नहीं करते, जिनका मन उत्साह से रहित होता है और जो सदा रोगी रहते हैं।
ऐसे व्यक्ति जब अपना ही भला नहीं कर सकते हैं तो परिवार का, समाज का और देश का भला करने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं। आज अधिकांश व्यक्ति यह कहते हैं- "महाराज ! समाज की व संघ की स्थिति देखकर बड़ा दुःख होता है पर क्या करें हमारी कुछ चलती नहीं।" अरे भाई ! चल क्यों नहीं सकती? पर इसके लिए प्रयत्न तो करो, केवल विचार करने या 'माइक' के सामने खड़े होकर भाषण देने से क्या हो सकता है ? आप अपने जैसे विचार रखने वाले व्यक्तियों
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