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________________ १८८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग कर्तव्य है । संक्षेप में, आशय यही है कि स्व और पर का कल्याण करना ही हमारा कर्तव्य और उद्देश्य है । जिसे करने पर हम इस लोक में तो शांति प्राप्त कर ही सकते हैं, परलोक में भी शाश्वत सुख की प्राप्ति कर सकते हैं। जिन महामानवों ने ऐसा किया है वे ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके हैं और संसार में मरकर भी अमर हो गये हैं। मराठी भाषा में कहा गया है "असूनहि जिवंत मेला कोण ? असे जो सदा निरुद्योगी। उत्साह रहित ज्यांचे मन, किंवा जो सदा असे रोगी ॥" कहते हैं कि जो व्यक्ति सदा निरुद्योगी बना रहता है तथा जिसका मन सदा उत्साहविहीन होता है वह जीवित रहता हुआ भी मृतक के समान है । ऐसा पुरुषार्थहीन व्यक्ति न तो स्वयं ही अपनी सहायता कर सकता है और न कोई अन्य व्यक्ति ही उसे सहायता देकर ऊंचा उठा सकता है। पुरुषार्थहीनता का एक उदाहरण आपके समक्ष रखता हूँ। पुरुषार्थहीन व्यक्ति कहते हैं कि एक चोर ने एक बार नगर में किसी के घर चोरी की। किन्तु दुर्भाग्य से लोगों ने उसे देख लिया और वे उसके पीछे दौड़ पड़े । ___ लोगों को अपने पीछे भागते देखकर चोर घबरा गया और दौड़ते-दौड़ते ज्यों ही एक मन्दिर दिखाई दिया, उसमें घुस गया। मन्दिर एक देवी का था । चोर विह्वल होकर देवी के चरणों में गिर पड़ा और उससे प्रार्थना करने लगा-"मैं अब तुम्हारी शरण में हूँ मुझे बचाओ।" देवी ने चोर को ऐसी स्थिति में देखा तो बोली- "भाई घबरा मत ! मैं तुझे बचाने की कोशिश करूंगी पर तू इतना कर कि उठकर मन्दिर के किवाड़ अन्दर से बन्द कर ले।" "देवी ! तुमने कहा सो ठीक है पर मेरे तो मानों घुटने ही टूट गये हैं। मैं कैसे उठकर किवाड़ बन्द करूं ?" देवी ने भक्त की यह बात सुनी तो बोली-“अच्छा तुझसे उठा नहीं जाता तो तू इतना करना कि लोग अगर मन्दिर के अन्दर आ जाएँ तो मेरे पीछे रहकर जोर से आवाज ही कर देना।" चोर बोला- "मुझसे तो यह भी नहीं हो सकता देवी, भय के मारे गला जो बैठ गया है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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