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समाज बनाम शरीर
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
___ संवर तत्त्व के सत्तावन भेदों में चौबीसवां भेद 'रोग परिषह' आया है । इसके विषय में श्री उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्याय में बत्तीस एवं तेतीसवीं गाथा के द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है।
भगवान महावीर की चेतावनी है—"हे मुने ! शरीर में रोग की उत्पत्ति होने के बाद उसकी वेदना से होने वाले दुःख से पीड़ित होकर भी तुम अपनी बुद्धि को स्थिर रखो, तनिक भी हृदय में दीनता मत आने दो अन्यथा मन विचलित हो जाएगा और संवर मार्ग से हटकर आश्रव की ओर बढ़ेगा । संयम-पथ में नियमों का पालन करते हुए अगर रोगों का आक्रमण हुआ तो उन्हें समतापूर्वक सहन करो तथा साधु-मर्यादा में रहकर चिकित्सा कराओ । अगर तुमने चिकित्सा के लिए निर्वद्य
औषधि का त्याग करके सचित्त का उपयोग किया तथा किसी प्रकार का दोष साधुआचरण में आने दिया तो साधत्व कलंकित हो जायेगा।"
सारांश यही है कि बीमारी का इलाज भी किया जाय तो साधु-मर्यादा के अनुकूल होना चाहिए। अगर ऐसा न हो सके तो पूर्ण समभाव से सहन करना चाहिए । शरीर जहाँ है बहाँ रोगों का उत्पन्न होना कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात उन्हें समतापूर्वक सहन करने की है और अपनी मर्यादा में रहकर ही उसका उपचार करवाने की है।
भाइयो ! यह विषय हमने कल लिया था और 'रोग परिषह' के विषय में विचार-विमर्श भी किया था।
आज तो मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि मनुष्य-शरीर के समान ही समाज रूपी शरीर भी होता है। तथा जिस प्रकार यह शरीर रोगों से पीड़ित होता है, इसी प्रकार समाज-रूपी शरीर भी अनेक रोगों से पीड़ित होता है। समाज के रोग
आप विचार करेंगे कि समाज को कौन से रोग होते हैं ? उसे न बुखार
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