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समाज बनाम शरीर
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आता है, न पेट-दर्द होता है और न ही निमोनिया या हृदय रोग ही कष्ट पहुँचता है। आपका विचार सही है, पर समाज भी रोगों से पीड़ित अवश्य होता है । हमारे शरीर के जैसे रोग उसे भले ही नहीं होते किन्तु उसको अन्य विभिन्न प्रकार के रोग पीड़ित करते हैं । जैसे—दहेज प्रथा, फिजूलखर्ची, रिश्वतखोरी, मानव की मानव से ईर्ष्या, जलन और शत्रुता तथा असंगठितता।।
__ समाज का सबसे बड़ा रोग असंगठन है। इस रोग से पीड़ित होने के कारण व्यक्ति, व्यक्ति से ईर्ष्या करता है, घृणा करता है, तथा एक-दूसरे की बढ़ती को स्वीकार नहीं कर सकता । असंगठन के कारण ही समाज की तरक्की नहीं होती, उसमें अच्छाइयाँ नहीं ठहरने पातीं और वह सुख शान्ति से पूर्ण समृद्धता को प्राप्त नहीं कर पाता। दूसरे शब्दों में समाज रूपी शरीर स्वस्थ नहीं रह पाता। हम अपने इस नश्वर शरीर को स्वस्थ रखने के लिए तो नाना प्रकार की औषधियाँ लेते हैं, किन्तु समाज रूपी शरीर को नीरोग बनाने के लिए इसमें रही हुई बुराइयाँ रूपी बीमारियाँ ठीक करने का प्रयत्न नहीं करते । इस प्रकार कैसे काम चल सकता है ?
जिस प्रकार मनुष्य का शरीर स्वस्थ रहे तो वह आत्म-कल्याण का प्रयत्न करता है और धर्माराधन कर सकता है, इसी प्रकार समाज रूपी शरीर स्वस्थ रहे तो उसमें धर्म टिकता है अन्यथा व्यक्ति धन को लेकर आपस में ईर्ष्या-द्वेष करते हैं, मकान और जमीन के लिए झगड़ते हैं, दहेज की कुप्रथा के कारण एक-दूसरे को कोसते हैं तथा और तो और अपने धर्म एवं सम्प्रदाय को लेकर भी खून-खच्चर करने से बाज नहीं आते । समाज रूपी शरीर की अस्वस्थता के कारण ही हमारी नई पीढ़ी के बालक-बालिकाएँ अनुशासनहीन, उच्छृखल एवं उदंड हो रहे हैं। इसी का प्रमाण स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षार्थियों की हड़तालें, माँगें एवं अतीव अव्यवस्था है । आज छात्रों में विनय का तो नामोनिशान ही नहीं रह गया है, वे अपने शिक्षकों को और आचार्यों को गाली-गलौज देकर ही सन्तुष्ट नहीं होते, उन्हें मारते हैं और कई बार तो सुनने में आता है कि अध्यापकों या प्रोफेसरों की छाती में छुरे भी घोंप देते हैं।
इन सबका क्या कारण है ? केवल सभ्यता और हमारी धर्ममय पुनीत संस्कृति की कमी । इसी वजह से आज उन गुरुओं को शिष्य प्रताड़ित करते हैं जिन्हें हमारी संस्कृति और धर्म भगवान में भी बढ़कर मानते हैं । यह इसलिए कि मुमुक्षु गुरु के बिना धर्म-मार्ग को नहीं समझ सकता तथा उनकी सहायता के बिना भगवान को भी नहीं पा सकता। पुराणों में गुरु की महिमा बताते हुए कहा गया है
न बिना यानपात्रेण तरितुं शक्यतेऽर्णवः । नर्ते गुरूपदेशाच्च सुतरोऽयं भवार्णवः ॥
-आदिपुराण ६।१७५
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